पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७०२

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भक्तिसुधास्वाद तिलक। सूचीपत्र भीतर रख, तानपूरा ले, प्रभु को स्मरण कर भाप बाजा बजा- कर गाने लगे। जितने पदार्थ उसमें लिखे थे सो सव उस कोठरी में प्रभु कृपा से पूर्ण हो गये॥ (५४९) टीका । कवित्त । (२९४) गाँव पहिरायो, छवि छायौ. जस गायौ, अहो हाटक रजत, उभै पाथर हू आये हैं। रहि गई एक भूले लिखत अनेक जहाँ, "लेही ताहीपास जापै सब मिलि पाये हैं"। विनती करत बेटी "दीजिये जू लाज रहै," दियौ मँगवाय, हरि फेरिके बुलाये हैं । अंगन समात सुता तात को निरखि रंग संग चली आई पति आदि बिसराये हैं ॥ ४४१॥ (१८८) वात्तिक तिलक। श्रीनरसीजी ने सोने रूपे के आभूषण और सुन्दर वस्त्र सम्पूर्ण ग्राम के लोगों को पहिनाया, सब छवि से छा गये,पापका आश्चर्य यश गाने लगे। और दो पत्थर भी सोने रूपे के दिये। लिखने में उस ग्राम की एक बी भूल गई थी वह आकर कहने लगी कि “जिस से सबको मिला है उसी के हाथों से मैं भी लूँगी।" कन्या ने श्राप से प्रार्थना की कि "इसको भी मँगवा दीजिये जिसमें मेरी लाज रहे।" आपने फिर प्रभु को स्मरण कर वस्त्र भूषण मँगाकर उसको भी दिये। श्रीनरसीजी की कन्या अपने पिता का यह प्रभाव प्रेम रंग उमंग देख अकथनीय आनन्दित हुई, पति आदिकों को विसराकर, आपके साथ ही साथ जूनागढ़ चली आई ॥ (५५०) टीका । कवित्त । (२९३) सुता हुती दोय, भोय भक्ति, रहीं घर ही में, एक पति त्यागि, एक पतिहू न किया है। पुर मैं फिरत उभै गाइन सुचाइन सों, धन सों न भेंट काहू नाम कहि दियौ है ।। आई लगी गाइवे कों, कही कोई कहते है कि सोने की ईंट तथा चाँदी की ईंट भी दी।