पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७०३

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६५४ श्रीभक्तमाल सटीक। समझाय, "अहो पायवे को नाही कछू पाचे, दुख हियों है। चाहौ हरि भक्ति, तो मुंडाय के लड़ाय लीजै, कीजै बार दूर, रही, प्रेम रस पियों है ।। ४४२॥ (१८७) वार्तिक तिलक । श्रीनरसीजी की दो कन्याएँ थीं, एक का नाम "कुँवर सेना" दूसरी का “रतन सेना," सो हरिभक्ति में लवलीन होकर घर ही में रह गई, वड़ी अपने पति को तज के, और छोटी ने तो अपना विवाह ही नहीं किया । जूनागढ़ में कोई सामान्य जाति की दो गानेवाली स्त्रियाँ आई, उन्होंने बहुत ठिकाने उत्साह से गान किया, परन्तु एक पैसा भी नहीं मिला। किसी ने कह दिया कि "नरसीजी के यहाँ जाकर गाओ," वे आकर गाने लगी। आपने उनको समझाकर कहा कि “यहाँ कुछ मिलेगा नहीं, पीछे तुम्हारा हृदय दुखी होगा, उन्होंने नहीं माना, तब आपने कहा कि “यहाँ धन नहीं मिलेगा, श्रीहरिभक्ति चाहो तो बालों को मुड़ाकर विरक्त होकर प्राओ, प्रेम से गाकर प्रभु को लाड़ लड़ायो।" उन दोनों ने ऐसा ही किया। आपके यहाँ रही और प्रेमरस पान करने लगीं। (५५१) टीका । कवित्त । (२९२) मिली उभै सुता, रंग मिली संग गायन चे, चायनि सों नृत्य करें, भायनि बताय । “सालंग" है नामा मामा मंडलीक मंत्री रहै कहै "विपरीत बड़ी" राजा सों सुनाय कै ॥ बड़े बड़े दंडी और पंडित समाज किया, करौ वाकी भंडी, देश दीजिए छुटाय के प्राये चार चोवदार "चलौ जू विचार कीजै भयो दरवार हमें दिये हैं पठाय वात्तिक तिलक । अब तो श्रीनरसीजी की प्रेमवती दोनों कन्याएँ और साथ साथ चोवदार दण्डधारी भृत्य ॥