पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७०६

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+ a n d + + + +- - - - - - भक्तिसुधास्वाद तिलक । भरे “केदारा" राग में प्रभु का गुनगान किया करते थे, तब श्रीश्याम- सुन्दर के कंठ से फूलों की रसाल माला टूटकर पापको प्रसादी मिलती थी। यह चरित्र देख उस कठिन देश में बहुत लोग हरिभक्त होगए, पर जो विमुख स्वभाव के वश पड़े थे वे सहज ही दुखी हुए। (५५४) टीका । कवित्त । (२८९) नृपति सिखायौ जाय, "बृथा जस छायौ, काचे सूत मैं पुहायौ हार टूटै ख्यात करी है ।" माता हरिभक्त भूप कही, "जिनि करौ कान,” तक बानि राजस की माया मति हरी है ।। गयौ दिग मन्दिर के सुन्दर मँगाय पाट तागौ वटवाय करि माला गुहि धरी है। प्रभु पहिराय कह्यौ "गाय अब जानि परै” भरै सुर, राग और गायौ 4 न परी है ॥ ४४६॥ (१८३) ___ वात्तिक तिलक । दुखी हो, जाकर दुष्टों ने राजा को सिखाया कि "देखिये, इसका वृथा ही यश छा गया है. कच्चे सूत से माला पुहाके प्रभु को पहिनाकर गाने लगता है, फूलों का भार पाके कच्चा सूत टूट पड़ता है, परन्तु विख्यात कर दिया कि माला टूटके मुझे प्रसादी मिलती है।" राजा की माताजी श्रीहरिभक्तियुक्त थीं, उन्होंने राजा से कहा कि “इन विमुखों की बात तुम मत सुना करो ॥" तथापि, रजोगुणी प्रकृति तो थी ही, माया ने मति हर ली, इससे राजा श्रीनरसीजी के मन्दिर में गया और सुन्दर रेशम मँगाय कई परत वटाके माला गुंथवाकर प्रभु को पहिराकर कहा “अब गाइये, जो माला टूट पड़े तो मुझे निश्चय होवे।" श्रीनरसीजी ने और और रागों से (केदारा राग के अतिरिक्त क्योंकि इस राग को गिरौं रक्खा था) स्वर भर के गान किया, परंतु माला नहीं गिरी ।। (५५५) टीका । कवित्त । (२८८) विमुख प्रसन्न भये, तव तो उराहने दै नये नये चोज हरि सन-

मुख भाखिये । “जानै ग्वाल बाल एक माल गहि रहे हिये, जिये

, - लाग्यो यही रूप, कहाँ लाख लाखिये ॥ नारायण बड़े महा, अहा