पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७०७

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- - - - - - - - - - - +- + + ++ श्रीभक्तमाल सटीक । मेरे भाग लिख्यो, करै कौन दूरि छवि पूर अभिलाखिये । म्हारौ कहा जाय आय परसै कलंक तुम्है, राखिय निसंक हार, भक्त मारि नाखिये" ॥४४७॥ (१८२) बार्तिक तिलक। माला का न टूटना देख दुष्ट विमुख लोग बड़े ही प्रसन्न हुए, तब श्रीनरसीजी प्रभु के सम्मुख नये नये चोजों से उलाहना देकर कहने लगे, कि "मैंने ग्वाल के बालक का स्वभाव जान लिया, ऐसे कंजूस हो कि पैसे की माला हृदय में गहरहे हो, दी नहीं जाती, मैं क्या करूँ, मेरे जी को तो यही रूप प्यारा लगता है, लाखों भाँति सम- झाने से नहीं समझता । देखो | श्रीलक्ष्मीपति नारायण ऐसे महान् बड़े हैं कि ब्रह्मांड भर को अनेक पदार्थ देकर पालन करते हैं और अपने भक्तों की इच्छा पूरी करते हैं, परंतु मेरे भाग में तो 'गोपाल' ही लिखे हैं उसको कौन अन्यथा कर सकता है ? इसी से मैं इन्हीं की पूर्ण छवि की अभिलाषा करता हूँ। यह दशा है कि एक माला अपने उर से अलग नहीं करते हो । हे प्रभो । इस कृपणता में मेरा क्या जायगा तुम्हीं को कलंक लगेगा, लो अब हार को निशंक अपने कंठ में रक्खे रहना, मुझ भक्त को मार डालो ॥" (४५६) टीका । कवित्त । (२८७) हैं तहाँ साह, किये उभै लै विवाह जाने तिया एक भक्त कहे "हरिकों दिखाइये" । नरसी कही ही "भले" सोई प्रभु वानी लई, साँच करि दई, गए राग छुटवाइयै ॥ बोले, पट खोलि दिये, किये दरसन ताने, ताने पट सोवे वह कही “देवो भाइयै”। लिये दाम, काम कियो, कागद गहाय दियो, दियो कछु खाइवे को, पायौ लै भिजाइये ॥४४॥ (१८१) ___ वात्तिक तिलक । वहाँ एक सेठ था उसने दो विवाह किये थे, उसकी एक श्री बड़ी

  • प्रभ ने माला क्यों न दिया कि नरसीजी ने केदारा राग नहीं गाया और केदारा राग

नयों नहीं गाया कि वह बन्धक (गिरों) रक्खा था।