पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७०८

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44 - tains - - भक्तिसुधास्वाद तिलक। ६८९ भक्का थी, सो उसने श्रीनरसीजी से कई बार प्रार्थना की थी कि “मुझे श्रीहरि के दर्शन करा दीने," आपने कहा भी था कि “बहुत अच्छा" सो प्रभु ने अपने भक्त की वाणी सत्य करने तथा केदारा राग छुड़ाने के लिये नरसीजी के रूप से जाकर पुकारा । स्त्री बड़भागी ने केवाड़ खोल दर्शन पाए, प्रणाम किया और उसका अभागी पति ( साहु) मुंह पर वन ओढ़े सोता रहा, उसने दर्शन नहीं किये, अपनी स्त्री से कह दिया कि “रुपए लेकर कागद (लिखत) दे दो।" उसने द्रव्य लेकर रागवाली लिखत फेर दी और प्रेम से कुछ मेवे मिठाई खिला विनय भी किया। चौपाई। "यह जानब सत्संग प्रभाऊ । लोकहु वेद न धान उपाऊ॥ प्रभु ने कृपाकर उसको प्रेम से भिगा दिया । कृपा की जय ।। घर आने पर भी अभागों को भगवत् भागवत के दर्शन यों नहीं होते ॥ दो० "तुलसी या संसार में, सबसे मिलिये धाय । क्या जानें कोई रूप मह, नारायण मिलि जाय" ॥१॥ (५५७) टीका । कवित्त । (२८६) गहने धस्यो हो राग केदागै, सो साह घर, धरि रूप नरसी को, जाय के छुटायौ है । कागद लै डारची गोद, मोद भरि गाय उठे, प्राय भन्न झन्न स्याम हार पहिराया है। भयो "ज जैकार, नृप पाय लपटाय गयो, गहौ हिये भाव सो प्रभाव दरसायों है । विमुख खिसाने भये, गये उठि, नये नाहि, विन हरिकृपा भक्तिपंथ जात पायौं है ।।४४६॥ (१८०) वात्तिक तिलक । श्रीनरसीजी ने संतसेवा के लिये कुछ द्रव्य लेकर केदारा राग सेठ के यहाँ गिरों रख दिया था। सो यों श्रीनरसीजी का रूप धारण कर रुपए दे, राग छुड़ा, गिरवीवाला पत्र फेर लाकर, प्रभु ने श्रीनरसीजी के गोद में डाल दिया, तब आप जान गये कि कृपासिन्धु