- - - - ." + + + + + + श्रीभक्तमाल सटीक। प्रभु छुड़ा लाये । इससे अानन्द युक्त केदारा राग के गाने लगे। और दिन तो माला ही टूट पड़ती थी, उस दिन कृपालु प्रभु की मूर्ति ने स्वयं चलके झन्न झन नूपुर बजाते श्राकर श्रीनरसीजी को अपने सरकंज से ही माला पहिना दी। देखकर सब भक्तों ने “जय जय, धन्य धन्य" किया; राजा श्रीनरसीजी के चरणों में लिपट गया। और यह प्रभाव देख हृदय में भक्तिभाव को उसने धारण किया ॥ प्रभागे दुष्ट विमुख लोग जो थे वे लजित हो, खिसियाके उठ गये, परंतु श्रीनरमीजी को थोर प्रभु को प्रणाम तक नहीं किया। जान लो, विना प्रभु की कृपा के, भक्तिपथ के सम्मुख कोई कैसे हो सकता है ? ॥ चौपाई। “जो पै दुष्ट हृदय सो होई । मोरे सन्मुख प्राव कि सोई॥ .. रतन सेठ ने श्रीनरसीजी के ठाकुरजी से मानता की कि “यदि मेरे घर पुत्र होवे तो मैं अमुक सामग्री से आपकी पूजा करूँ।" श्रीहरिकृपा से उसी संवत्सर के भीतर उसके लड़का हुया । सेठानी (लड़के की माता) ने लाख कहा, परन्तु कृपण रतन ने बहुत काल तक टाला ही किया, पूजा नहीं ही चढ़ाई। लड़के के प्रात्मा ने अपने शरीर को त्याग दिया। तव तो रतन सेठ बड़ा ही विकल हो श्रीनरसीजी के चरणों पर गिरा । उसकी स्त्री को अति दुःखी देख श्रीनरसीजी ने वृत्तान्त पूछा तब दम्पति ने मानता की वार्ता और उसका न पूरा करना कहकर लड़के के मृत्यु की वात कही और दोनों रोने चिल्लाने लगे। श्रीनरसीजी परम दयालु ने (जो सेठानी की भक्ति से प्रसन्न रहा करते थे) प्रभु से बड़ी प्रार्थना की। हरि ने कृपाकर उसके पुत्र को जिला दिया, दम्पति ने बड़े प्रेम तथा धूम से ठाकुरजी की पूजा की और रतन सेठ भी बड़ा भक्त हो गया। यह घटना संवत् १६५२ की है ॥
- श्रीनरसीजी मेहता का वह पद नागरीदास के, सगृहीत "पदप्रसगमाला," ग्रन्थ मे है ।