पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७११

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+++++ m my Mat . श्रीभक्तमाल सटीक । बजाय के । रहे दिन चार, पं विचार नहीं नेकु मन,आये कृष्ण रुक्मिनी जू, भूमि मिले धाय के ॥ ४५ ॥ (१७८) वात्तिक तिलक । ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि "मैं जिस अंगूठे से भले प्रकार तिलक कर भाया हूँ उसको यदि काट डालो तो ऐसी बात कहो, अब वह अन्यथा नहीं हो सकती, मन में विचार तो करो, मैं जाकर क्या कहूँगा?" ऐसे वचन सुन उसने जाना कि "मेरी कन्या के ऐसे ही भाग थे,” फिर शोच युक्त हो वापस में कहने लगे कि “जब विवाह करने आयें तब बहुत सा धन दायज देकर उसको अपने योग्य कर लिया जायगा"। फिर लग्नपत्र भी लिख दिया। ब्राह्मण ने आकर नरसीजी को दिया, आपने उस पत्र को कहीं योंही डाल दिया, और ताल बजा बजाके श्रीहरिगुण गाने लगे। जव विवाह के चार ही दिन रह गये, और आपको उसकी कुछ भी चिंता व विचार वरचा तक नहीं, तब श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीरुक्मिणीजी कृपा कर रूप धर, आपके घर आये । श्राप प्रेम से झूम झूम दौड़कर पग में जा लगे। (५६०) टीका । कवित ! (२८३) ठोर ठौर पकवान होत, तिया गान करें, घुरत निसान कान सुनिये न बात है । चित्र मुख किये ले विचित्र पट्ठरानी पाय, घोरी रंग बोरी पै चढ़ायौ सुत, सत है ॥ करी सो ज्यानार, तामें मानस अपार आये द्विजनि विचारि पोट बाँधी, पैन मात है। मणि मैं ही साज वाज गज स्थ ऊँट कोर झमकै किशोर अाज सजी यो वरात है ॥ ४५२ ॥ (१७७) वात्तिक तिलक । श्रीनरसीजी के गृह में आकर श्रीकृष्ण सक्मिणीजी ने अपने संकल्प से ही, सब ऐश्वर्य प्रकट किये, अनेक ठिकाने पर पकवान मिठाई बनने लगी, बहुत सी स्त्रियाँ गान करने लगी, मंगलीक बाजे इतने बजने लगे कि कानों में बात नहीं सुन पड़ती, स्वयं