पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७१२

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-- -- - -- नmantivir भक्तिसुधास्वाद तिलक । श्रीपटरानीजी ने नरसीजी के पुत्र को-मुख आदि अंगों में चित्र विचित्र श्रृंगार कर प्रेमरंग से डूबी हुई घोड़ी पर चढ़ाया, नेग दिये, फिर ज्योनार हुई, उसमें असंख्य लोग आये, ब्राह्मण लोगों ने बहुत से दिव्य पदार्थ देखें देख बड़ी बड़ी गठरियाँ बाँधी, परंतु वे पदार्थ घटनेवाले तो थे ही नहीं। मणि सुवर्णों के साज से सजे कोटिन हाथी, स्थ, घोड़े, ऊँट, उपस्थित थे, उन पर किशोर अवस्थावाले दिव्य मनुष्य चढ़े झमक रहे थे। ऐसी अद्भुत प्रकार की बरात सली॥ (५६१) टीका । कवित्त । (२८२) नरसी सों कहैं गहें हाथ “तुम साथ चलो, अंतरिक्ष मैं हूँ चली, इती पात मानिये"। कही “अजु ! जानो तुम, मैं तौ हिये प्रानौं यहै लहै सुख मन मेरो फेंट ताल आनि"। आप ही बिचारि सब भार सो उठाय लियो, दियौ डेरा पुरीसमधी की पहिचानिये।मानस पठायो “दिन आयो पैन आये,"अहो ! देखें छवि छाये नर पूछे जू बखानिये॥४५३॥(१७६) वातिक तिलक। जब बरात सज गई तब श्रीकृष्णचन्द्रजी नरसीजी का हाथ पकड़के बोले कि "अब वरात को संग ले तुम चलो, और अंतरिक्ष से मैं भी चलता हूँ, भला इतनी बात तो मेरी मान लो।" श्रीनरसीजी ने हाथ जोड़ प्रार्थना की कि “अजी महाराज ! बरात और विवाह, सब आप जानें आपका काम जाने, मैं तो यही जानता हूँ कि जहाँ कहो फेंट बाँध, ताल ले, अानन्द से आपका गुण गाता चलूँ, मुझे और नहीं आता भाता" । __सुनकर प्रभु ने विचारा कि सच कहते हैं । इससे सब भार आपही उठा, बरात लाकर समधी की पुरी के निकट डेरा कराया। उधर समधी ने विवाह का दिन जान, मनुष्यों को भेजा कि “देखो तो मार्ग में कहीं आते हैं ?" वे आकर वरात देख पूछने लगे कि “यह बहुत सुन्दर वरात किसकी है ?” वरातियों ने उत्तर दिया कि "श्रीमेहता नरसीजी की यह वगन है"।