पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७१३

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६९४ श्रीभक्तमाल मटीक । PHeartneraiminatimamta + + + (५६२) टीका । कवित्त । (२८१) "नरसी वरात," मत जानी यह नरसी की, नरसी न पावें ऐसी समझ अपार है। आयकै सुनाई, सुधि बुधि विसराई, कहौ “करत हसाई, वात भाखो निरधार है" | गयो जो सगाई कर दर पर आयौ बिज निज अंग मात कैसे रंग दिसतार है । कही “एक घास धनरासि सों न पूजे किहूँ, चहूँ दिसि परि रही देखौ भक्ति सार है ॥ ४५४ ॥ (१७५) वार्तिक तिलक। "श्रीनरसी मेहताजी की वरात है" यह सुन वे लोग विचारने कहने लगे कि “यह नरसीजी की वरात तो नरों की वरात के समान नहीं है, अर्थात देवतों की वरात केसमान है. ऐसी वरात इस लोक में तो नरसी नहीं पा सकते।" ऐसी समझ अपार है । और उन लोगों ने, दौड़के भाकर, बेटी के बाप से बरात की बड़ी बड़ाई की। सुनकर उसकी सुध बुध भूल गई । विश्वास न करके वह कहने लगा कि "हँसी करते हो ? यथार्थ कहो,” इतने में जिन ब्राह्मण ने वर को तिलक किया था, सो भी वरात देख वहाँ ही आये । उन ब्राह्मणजी के प्रेमरंग का उमंग अंग में नहीं समाता था, वे कहने लगे कि "जितना तुम्हारा धन है सो बरात के घोड़ों के धासमात्र को नहीं पूरा पड़ सकेगा, देखो श्रीनरसीजी की भक्ति का सारांश चारों दिशाओं में छा रहा है ।" (५६३) टीका । कवित्त । (२८०) चले अचरज मानि, देखि अभिमान गयो, लया पाचौ ब्राह्मन को "हमैं सखि लीजिये” । जाय गहि पाँय रहौ भाय भरि “दया करौ,"गए दृग भरै पाँव पर “कृपा कीजिय” ॥ मिले भरिश्रक, लै दिखायौ सो मयंकमुख, "हजिये निसंक इन्हें भार सुता दीजिये ।” ब्याह करि आये, भक्तिभाव लपटाये, सब गाये गुण जाने जेते, सुनि सुनि जीजिये ॥ ४५५ ॥ (१७४) वात्तिक तिलक। कन्या का पिता ब्राह्मण के वचन सुन आश्चर्य मान, स्वयं चल