पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७२०

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७०१ भक्तिसुधास्वाद तिलक। वार्तिक तिलक । श्री "अंगद" भक्तजी की अभिलाषा श्रोडैसानाथ श्रीपुरुषोत्तम जगन्नाथजी ने पूरी की। आपके पास एक बड़ा ही अनमोल नग (रत्न) था, उसको राना और उनके समीपी लोग माँगते, साम, दाम आदिक बहुत दिखाए (किये)। परंतु ये तो सच्चे भगवदास थे, इन्होंने नहीं ही दिया । एक समय संकट में पड़, मन से ध्यान कर, आपने मुख से कहा "हे प्रभो ! यह आपकी वस्तु है, सो आप लीजिये," और इतना कह रत को जल में डाल दिया। श्रीजगन्नाथ जी ने ७०० (सात सौ) कोस से लम्बा हाथ फैलाकर हीरा लेके अपने अंग में धारण किया । इस प्रकार प्रभु ने अपने भक्त की अभिलाषा पूर्ण की। आपका नाम पुनीत करनेवाला है। आपकी कविता नानकजी के "ग्रन्थ साहिब" में संग्रहीत है। (५७०) टीका । कवित्त । (२७३) । "रायसेन” गढ़ वास नृप सो “शिलाहदी” जू, तातो यह काका रहै, "अंगद विमुख है । ताकी नारी प्यारी, प्रभु साधुसेवा धारी उर, भाये गुरु घर, कहैं कृष्ण कथा सुख है । वैठे भौन कौन ? देखि कैसे मौन रह्यो जात ? बोल्यो "तिया जात, कहा करौ नर रुख है”। सुनि उठि गये, वधू अन्न जल त्यागि दये, लये पाँव जाय विषवस भयो दुख हैं ॥ ४५७ ॥ (१७२) वात्तिक तिलक।। श्रीअंगदसिंहजी क्षत्री "रायसेन" गढ़ के वासी, राजा, सिलाइदी- सिंह के चाचा, प्रथम अवस्था में विमुख थे, इनकी स्त्री रूपवती और भक्तिवती इनको बहुत प्यारी थी। वह श्रीहरि तथा संतों की सेवा में तत्पर हुई। एक दिवस उसके गुरुदेव उसके घर माकर सुखपूर्वक भगवत् कथा कहते थे, स्त्री आनन्द से सुनती थी। अंगद देखकर बोला “त्री जाति के समीप अकेले बैठकर यह क्या कर रहे हो ? ॥" वे सुनकर तत्काल ही उठके चले गये, और स्त्री ने अन्न जल