पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७२१

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9-04 - Mariegard-4 H amaas . ७०२ श्रीभक्तमाल सटीक । दोनों छोड़ दिया। अंगदजी प्रथम विषयवश तो थे ही दुःखित हो, बी के चरण पकड़, प्रार्थना करने लगे। (५७१ ) टीका । कवित्त । ( २७२ ) मुख न दिखावै, याहि देख्यो ही सुझावै, कही “भाव सोई करौ नेकु बदन दिखाइयै । हूँ जल त्यागि दियो, अन्न जात का पै लियौ, जीवौं जवनीको तब आप कछु खाइ"बोली “मोसों बोलौ जिन, छाडौं तन बाही छिन, पन सांचौ होती जो पै सुनत समाइये" । "कहो अव कीजै जोई, मेरी मति गई खोई, भोई उर दया, वात कहि समझाइये ॥ ४५८ ॥ (१७१) वात्तिक तिलक । ___ परन्तु नारी ने मुख ही नहीं दिखाया, इनको तो रात दिन उसका मुख देखना बड़ा ही अच्छा लगता था, विकल हो बोले कि "जो तुमको अच्छा लगे सोई अब मैं करूँ, मुझे अपना मुख मयंक तो थोड़ा दिखाओ, मैंने भी अन्नजल तज दिया है, मुझे जीना तभी मला लगेगा कि जब तुम कुछ खाओगी।" उसने उत्तर दिया कि "मुझसे बोलो मत, नहीं तो इसी क्षण देह तज दूंगी, मेरा पन सच्चा तो तब था कि जब तुमने श्रीगुरुजी को रूखे वचन सुनाए थे मैं उसी क्षण तन को तज देती ॥" ____ अंगदजी ने सुन अति दीन होकर फिर विनय किया कि “अब तुम जो कही सोई मैं करूँ, मेरी बुद्धि नष्ट हो गई।" तव तो भक्तिवती को दया लगी, और समझाकर यों कहने लगी। (५७२) टीका ! कवित्त । (२७१) ___ "वेई गुरु करौ जाय, पायन मैं परों," गयो, चायनि लिवाय ल्यायौ, भयो शिष्य, दीन है। धारी उरमाल, माल तिलक वनाय किया, लियो सीत, प्रीति होऊ उपजी नवीन है। चढ़ी फौज संग, चढ़यो, वैरी पुर. मारि बढ्यौ, कढ़यों, टोपी लेके हीरा सत, एक पीन है। डारे सब बेचि, पागपेच मध्य राख्यो मुख्य, भाष्यो “सो अमोल करौं जगन्नाथ लीन है" ॥४५६॥ (१७०) मौज -सेना ।।