पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७२२

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७०३ omka ++ +Arram- भक्तिसुधास्वाद तिलक । वात्तिक तिलक। "कि तुम जाके मेरे महाराजजीके चरणों में पड़ा, भगवत् की भक्ति के लये उन्हीं को गुरु करौ ।” सुनते ही अंगदजी बड़े उत्साह और दीनता जाकर गुरुजी को लिवा लाये और शिष्य हो, कंठ में श्रीतुलसी वाला, भाल में तिलक अच्छे प्रकार से करके, भोजन कराय, अंगदजी ने श्रीगुरु की सीथ (जूठ) प्रसादी ली। कोई नवीन प्रीति भक्ति उत्पन्न हुई, बड़े विनीत हो, भक्तिमार्ग में यथार्थ बलने लगे। “भक्ति, भक्त, भगवंत, गुरु" की जय ॥ एक समय राजा सिखाहदी सिंह, सेना समेत किसी दूसरे राजा पर चढ़ा, साथ श्रीअंगदसिंहजी भी थे, इनकी विजय हुई। उस राजा की एक टोपी श्रीअंगदसिंहजी के हाथ आई, उसमें एक सौ एक हीरे लगे थे, सौ होरे बेंचकर तो संतों की सेवा में लगा दिये और एक हीरा जो महामुख्य उत्तम और अनमोल था, उसको अपने पाग ( पगड़ी) के पेच में रसके कहा कि “वह हीरा श्रीजगनाथजी को सप्रेम अर्पण करूँगा। ___ (५७३) टोका । कवित्त । (२७०) ___ काना कानी भई, नृप बात सुनि लई, "कही हीरा वह देय, तो मैं और माफ किये हैं।" श्राय समुझावें, बहु जुगति वनावे, याके मन मैं न आवै, जाय, सबै कहिदिये हैं ।। अंगद बहिन लागै वाशी भुवा पागै, तासों "देवौ विष, मारौं” फिरि तू ही, पण छिये है । करत रसोई घोरि गरल मिलायो पाक, भोगहूँ लगायौ, अजू श्रावो” बोलि लिये हैं ।। ४६०॥(१६६) वात्तिक तिलक । इन १०१ ( एकसौएक ) हीरोंकी वार्ता कानोंकान होते राजातक पहुँची। उसने भापके पास अपने मंत्रियों को भेजकर कहलाया कि "वह एक हीरा मुझको दे दे, तो सौ हीरे मैंने क्षमाकिये” वे लोग आकर बहुत मुक्तियों से समझाया पर श्रीअंगदजी के मन में एक भी न आई । आप वोले “वह तो मैं श्रीजगन्नाथजी को अर्पण कर चुका ॥" 8 "माफ" क्षमा ॥