पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७२३

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Mutub44-and- a nd- Latinath+amme +++++ श्रीभक्तमाल सटीक। आकर उन सबों ने राजा से कहा कि "वह ऐसे नहीं देंगे" फिर कुमंत्रियों से राजा ने विष देना यों निश्चय किया, कि श्रीअंगदजीकी बहिन जो राजाकी फूफी (बुमा) लगती, और आपके ठाकुरजी की रसोई किया करती थी सो राजाने उसके चरण पकड़कर कहा कि "विष देकर इसको मार डाल पीछे तुझे बहुत धन द्रव्य दूँगा"वह स्त्री ही जाति तो थी रसोई में घोर विष मिला, भोजन बना, प्रभुको अर्पणकर, उसने श्रीअंगदजी को प्रसाद पाने के लिये बुलाया। (५७४) टीका । कवित्त । (२६९) वाकी एक सुता, संग लैके बेटें जेंवन कों, आई सो छिपाय कही जैवो कहूँ गई है" जेंवत न, बोधि हारी, तब सो विचारी पीति, भीति, रोय मिली गरें, रीति कहि दई है ॥ प्रभु ले जिंवाये रॉड. भाँड कै निकासि द्वार, दे कार किवार, सब पायो ओप नई है। वह दुख हियें रह्यो । कयौ कैसे जात काहू ? वात सुनि नृपहूँ ने, जैसी भाँति भई है ।। ४६१॥(१६८) वात्तिक तिलक । देखिये, श्रीअंगदजी की उसी बहिन की एक लड़की थी, आप नित्य उसको साथ लेकर प्रसाद पाते थे । उस दिन वह उसको कहीं छुपा आई । आपने उसको बुलाया, बहिन बोली “श्राप प्रसाद पाइये, वह कहीं खेलने निकल गई है," आपने प्रसाद नहीं पाया, उसने बहुत प्रकार प्रवोध किया तब भी विना उसके नहीं ही पाया|| - अपनी लड़की में आपकी इस प्रकार की प्रीति देख, लजित हो विष के भय से गले में लगके रोने लगी, और विष दिवाने का सब वृत्तांत भी कह सुनाया। सुनकर अंगदजी ने कहा कि “राँड ! तूने मेरे प्रभुको विष भोग लगा दिया। अब मुझे कहती है मत पावो," तत्काल उसको बाहर निकाल, कपाट दे, श्राप विष-मिश्रित सब प्रसाद पागये॥ आपके भाव विश्वास से वह विष अमृत सरीखा हो गया क्योंकि