पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७२४

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७०५ murar- भक्तिसुधास्वाद तिलक। प्रभु को विष भोग लग जाने की बात आपको बड़ी ही दुःखद थी। प्रसाद पाने से आपके देह में नवीन छवि प्रकाशित हुई, जिस प्रकार यह समस्त वाचर्चा हुई राजा सुनके बड़ा लज्जित तथा विस्मित हुना॥ (५७५) टीका । कवित्त । (२६८) चले नीलाचल, हीरा जाय पहिराय आई, आय घेरि लीने नृप नरनि, खिसाय के । कही डारि देवौ, कै लराई सनमुख लेवी, बस न हमारी, भूप प्राज्ञा आये धाय के ॥ बोले "नेकु रहो, मैं अन्हाय पकराय देत, हेत मन और, जल डारयो ले, दिखाय के ! वस्तु है तिहारी प्रभु, "लीजिय,” उचारी यह, बानी लागी प्यारी, उर धारी सुख पाय कै॥ ४६२ ॥ (१६७) वात्तिक तिलक । इसके अनंतर, श्रीअंगदजी हीरा लेकर नीलाचल धाम को चले कि "श्रीजगन्नाथजी को पहिराय ही पाऊँ ।" इतने में राजा के भेजे बहुत से शस्त्रधारी लोग आके आपको चारों ओर से घेर के कहने लगे कि “अब हीरा धर दीजिये, और नहीं तो सम्मुख युद्ध कीजिये, इसमें हमारा कुछ बस नहीं, हमने तो राजा की प्राज्ञा से धावा किया है।" आपने कहा कि "एक क्षण भर क्षमा करो, मैं स्नान करके तुमको दिये देता हूँ।" __मन में तो आपके और ही था, हीरा ले, सबको दिखा, उसी सर (तालाब) में डालकर, पुकार उठे कि "हे प्रभो ! यह आपकी वस्तु है, सो लीजिये।" भक्त की वाणी श्रीजगन्नाथजी को अति प्यारी लगी, इससे सात सौ कोस से हाथ बढ़ा हीरा ऊपर से ऊपर रोक लिया और आपने श्रीअंग में धारण कर लिया, सो आज तक श्रीअंग में सुशोभित है। (५७६) टीका । कवित्त । (२६७) __एतौ घर आये, वे तो जलमधि कूदि छाये, अति अकुलाये, नेकु खोज हूँ न पायौ है । राजा चलि प्रायौ, सब नीर कढ़वायो कीव देखि. मुरझायो, दुख सागर अन्हायो है ॥ जगन्नाथदेव आज्ञा दई, “वाहि