पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७२५

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MAMp 4 ma4-04-10-04141 श्रीभक्तमाल सटीक । सुधि देवों", आयकै सुनाई, नर तन विसरायौ है । गयो, जाय देख्यौ उर पर जगमग रह्यो, लह्यो सुख नैननि को, कापै जात गायौ है ॥ ४६३ ॥ (१६६) वात्तिक तिलक। श्रीअंगदजी तो अपने घर चले आए, और राजा के सब लोग जल में कूद पड़े, अकुलाके ढूँढ़ने लगे परन्तु हीरा का खोज नहीं ही पाया। तब बहुत से लोग साथ ले राजा स्वयं आया, तालाब को काट उसने जल निकलवाया, कितना ही हुँदवाया, पर वह केवल कीचमात्र देख, मुरझाकर दुःखसिंधु में डूब गया ॥ श्रीजगन्नाथदेवजी ने अपने जनों को श्राज्ञा दी कि "जाओ, अंगद- भक्त से समाचार कहि श्राश्रो कि तुम्हारा अर्पण किया हुआ हीरा प्रभु ने अपने श्रीअंग में धारण कर लिया।” सुनके आपने पानन्द से तन का भान भुला दिया; फिर श्रीपुरुषोत्तमपुरी में जाकर श्रीअंगदजी ने देखा कि “हीरा प्रभु के श्रीअंग पर जगमगा रहा है ॥" उस समय श्रीअंगदजी को जो नेत्रानन्द हुआ सो कौन कह सकता है ? (५७७) टीका । कवित्त । (२६६) राजा हिय ताप भयो, दयो अन्न त्यागि, कह्यौ श्रावै जो, भाग मेरे ब्राह्मण पठाये हैं । धरना दे रहे कहे नृप के बचन सब, तब द्वै दयाल श्राप पुर ढिग आये हैं । भूप सुनि आगे श्राय पाँय लपमय गयो लयौ उर लाय हग नीर लै भिजाये हैं । राजा सरवस दियौ जियो हरिभक्ति कियो हियो सरसायो गुन जाने जिते गाये हैं ॥ ४६४ ॥ (१६५) बात्तिक तिलक । जब आप जाके श्रीजगन्नाथपुरी ही में रह गये, तव आपका प्रभाव । समझ राजा के हृदय में बड़ा पश्चात्ताप हुमा, अन्न त्याग दिया, । ब्राह्मणों को बुला बहुत सत्कारकर कहा "आप लोग जाइये किसी ।