पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७२८

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भक्तिसुधास्वाद तिलक। ७०९ विमुख पठाय दियो, “दियौ भाल तिलक द्वार दास यो सुनाइये।" गयो, गयो भूलि, फूलि कुल विसतार कियौ लियो पहिनानि अब जान कसे पाइयै ॥४६५॥ (१६३) बात्तिक तिलक। उस राजा के यहाँ एक भक्तराज ब्राह्मणजी भागवत सुनाते थे, उन्होंने राजा के वचन सुनकर कहा कि "ऐसा मन में मत लाइये कि "उनको पात्र और अपात्र का विवेक नहीं है,"न जान वे अपने हृदय में क्या भाव लाकर इस प्रकार अनुराग में भरके सर्वस्व अर्पण करते हैं, ऐसी किसी की शक्ति नहीं है कि भक्तों के हृदय में प्रवेशकर उनके मन की श्राशय जान लेवे।" श्रीभक्तवर पंडितजी के ऐसे वचन सुन, परीक्षा के लिये, एक विमुख भाट को तिलक माला धारण कराके उस राजा ने आपके पास भेजा, और कह दिया कि "वहाँ जा, ऐसा ही वेष वना, अपने को "भगवदास” कहना ।" भाट गया तो परंतु तिलक कंठी धारण करना और अपने तई वैष्णव बताना तो वह भूल ही गया, अपने अभ्यास से फूल के वंश- विस्तार प्रशंसा करने लगा। लोगों ने जाना कि यह तो भाट है, फिर अब भीतर कैसे जाने पाता। (५८१) टीका । कवित्त । (२६२) बीते दिन बीस तीस, आई वह सीख सुधि, कही "हरिदास” कोऊ आयो, यों सुनाइये । बोले "जू निसंक जावी, गावौ गुनगोविन्द के" आये घर मध्य, भूप करी जैमी भाइयै ।। भक्ति के प्रसंग कौन रंग कहूँ नैकु जान्यौ, जान्यौ उनमान सों परीक्षा मँगवाइयै । दियौ लै भंडार खोलि, लियो मन मान्यो, दई संपुट में कौड़ी डारि, जरी लपटाइयै ॥ ४६६ ॥ (१६२) वात्तिक तिलक । उस भाट को कोई एक महीना भर बीत गया पर अब अपने राजा की शिक्षा की सुधि आई, तब वेष बना उसने द्वारपाल वेतपाणि से 8 "जरी"=-=स्वर्णमूत्र का वस्त्र, गोटा ।।