पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७३२

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A NOJP4Inter- 4-.. -Agarwari भक्तिसुधास्वाद तिलक। ७१३ भजी॥सदृश गोपिका प्रेम प्रगट, कलिजुगहिं दिखायौ। निरअंकुश अति निडर, रसिक जसरसना गायौ। दुष्टनि दोष बिचारि, मृत्यु को उद्दिम कीयौ। बार न वाँको भयौ, गरल अमृतज्यों पीयौ।भक्ति निसान बजाय कै, काह ते नाहिन लजी । लोक लाज कुलश्रृंखलातजि "मीरा *" गिरिधर भजी ॥११५॥ (६६) वात्तिक तिलक । श्रीमीराजी ने, भक्ति वाधक लोकलाज और कुलरीति की शृंखला (बेड़ी) को तोड़कर, श्रीगिरिधरलालजी का भजन किया। श्रीगोपीजनों के समान प्रगट प्रेम कठिन कराल कलिकाल में दिखाया, और प्रेमप्रमत्तदशा से निरंकुश तथा निडर होकर रसना से रसिक- शिरोमणिलाल का यश गान किया । आपकी यह प्रेमगुणयुक्त भाक्तिरीति देख, दोष विचारकर दुष्टों ने मृत्यु का उद्यम कर विष दिया, सो आपने महाविष को अमृत के समान पान कर लिया, और आपका एक बाल भी न टेढ़ा हुआ। भक्तिरूपी दुंदुभी बजाकर किसी से लजानी नहीं । इस प्रकार श्रीमीराबाईजी ने श्रीगिरिधरलालजी का भजन किया ॥ दो० "लाज छाँड़ि गिरिधर भजी, करीन कछु कुलकानि । सोई मीरा जग विदित, प्रगट भक्ति की खानि ॥ १॥ नृत्यति नूपुर बाँधिक, नाचत ले करतार। विमल हियो भक्तनि मिली, तृण सम गनि संसार ॥२॥ बन्धुनि विष ताको दियो, करि विचार चित पान । सो विष फिरि अमृत भयौ, तब लागे पछतान ॥३॥ ललिता हूँ लइ बोलिक, तासों हो अति हेत । आनँद सों निरखत फिरे, वृन्दावन रसखेत ॥ ४॥" (श्रीध्रुवदासजी)

  • "मीराँ" =पाठान्तर ।।