पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७३४

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Hinu mangarera भक्तिसुधास्वाद तिलक । विवाह के अनंतर पति के ग्राम में चलने के समय आपको मूर्छा सी भा गई॥ ___ माता पिता कहने लगे “बेटी पट वच्च भूषण जो तुझको लगे सो सब लो, दुखित मत हो।" आपने नेत्रों में जल भरकर कहा "मुझे धन भूषण तो कुछ भी नहीं चाहिये, परन्तु-॥" "देरी माई! अब म्हाको गिरिधरलाल ॥" (५८७) टीका । कवित्त । (२५६) "देवौ गिरिधारीलाल, जो निहाल कियो चाहौ, और धन मालक सव राखियै उठाय के।" बेटी अति प्यारी, प्रीति रंग चढ़यो भारी, रोय मिली महतारी, कही “लीजिये-खड़ाय के" ॥ डोला पधराय, दृग हग सों लगाय चलीं, सुख न समाय चाय, पानपति पाय है। पहुँची भवन सासु देवी पै गवन कियौ तिया अरु बर गठजोरौ कसो भाय के ॥ ४७२ ॥ (१५७) वात्तिक तिलक। "जो मुझे प्रसन्न किया चाहौ, तो श्रीगिरिधारीलालजी को दो, और धन भूषण वसन सब अपना रख छोड़ो।" आप माता को अति प्यारी थीं, उसने देखा कि पुत्री को प्रभु के प्रीति का रंग भारी चढ़ा है इससे रोकर हृदय में लगाकर कहा कि “बेटी! श्रीगिरिधरलालजी को ले परम प्रेम से पूजा-सेवा करना॥" - तब आप अपनी पालकी में पधरा के सामने आप भी नेत्रों को प्रभु के नेत्रों से मिलाकर बैठ गई । और चलीं, अपने प्राणप्रिय प्राणनाथ गिरिधरगोपाल के पाने का आनन्द इतना था कि हृदय में नहीं समाता था। जो छवि दृष्टिगोचर होती थी, वह श्रीमीराजी ही से पूछना चाहिये, दूसरा क्या जाने ? "जाकर जापर सत्य सनेह । सो तेहि मिलइ न कछु संदेह ॥" राना के घर पहुँची, सासु उतारकर श्री पुरुष (अपने पुत्र) की गाँठ जोड़कर, देवी के गृह में लिया गई॥

"माल"-J=धन धान्य ।।