पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

gad-and-adm imingste Muarad ७२२ श्रीभक्तमाल सटीक । समझती थी, परंतु जीवगुसाइजी दूसरे पुरुष वृन्दावन में बने हुए बैठे हैं कि स्त्री का मुख नहीं देखते । श्रीवृन्दावन तो भगवान श्रीकृष्णचंद्र का रंगमहल है आप महात्मा विख्यात होते हुये भी यदि अपने तई भी पुरुष ही मानते हों तो अन्तःपुर में जो आपने यो स्थान रक्खा है इस निडर साहस की सूचना श्रीराधा महारानी के पास अभी अभी क्यों न पहुँचाई जावे सो श्राप शीघ्र बताने की कृपा कीजिये कि सच ही क्या आप अपने आपको पुरुष मानते हैं ॥" इस प्रकार उत्तर सुन गुसांईजी स्वयं चलके अपना पन छोड़, आपके दर्शन किये। दोनों भक्तों ने प्रेम से मिल झिलके परस्पर दर्शन संभाषण सुख लिये, फिर, “सेवा" आदि वृन्दावन के कुंज कुंजन प्रति सुखपुज राधाकृष्णजी का दर्शनकर शोभा हृदय में घर, जो देखी थी, सो अपनी अनुभव भावना सब सप्रेम पदों से गान किया। __राना के यहाँ की उत्पीड़न और उपद्रव से उदासीन हो, गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीकी सम्मति पा द्वारिका आई॥ (५९५) टीका । कवित्त । (२४८) राना की मलीन मति, देखि, वसी द्वारावति, रति गिरिधारीलाल, नित ही बड़ाइये। लागी चटपटी भूप भक्ति को सरूप जानि, अति दुख मानि, विप्र श्रेणी लै पठाइयै ॥ बेगि लेके आवौ मोकों प्रान दे जिवावी अहो गये दार धरनौ दै बिनती सुनाइये । सुनि बिदा होन गई राय रणछारे जू पै छाडौं राखौ हीन लीन भई नहीं पाइयै ॥४८०॥(१४६) वात्तिक तिलक। राना का वैरभाव और मलीनमति देख, आपने दारिकाजी में आकर निवास किया "दारिका को बास हो मोहिं द्वारिका को वास ॥" नित्य सप्रेम श्रीगिरिधरलालजी को लाड़ लड़ाती थीं ॥ . उधर राना के चित्तौरगढ़ में बहुत से उपद्रव होने लगे। तव इसने आपकी भक्ति का स्वरूप जाना । दुःखित हुया, मन में यह चटपटी लगी कि "मीराजी यहाँ आजायँ तो भला।" तब बहुत से ब्राह्मणों