पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७४२

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७२३ +waterta भक्तिसुधास्वाद तिलक । को बुलाकर कहा कि "आप लोग जाकर मीराजी को लिवा लाइये, तो मानों मुझे पाण जीवन दान दीजिये।" द्वारावती जाके उन ब्राह्मणों ने बहुत भाँति से कहा, परंतु आपके मन में एक न आई । तब ब्राह्मणों ने धरना देकर कहा कि “जब तक नहीं चलोगी तब तक हम अन्न जल नहीं ग्रहण करेंगे।" आपने कहा “अच्छा, मैं श्रीरणछारेजी से विदा हो आऊँ।" माके एक पद बनाके गया-- "हूँ मुलतजी मैं आपसे मेरी यही है इलतिजा। चरणों से अपने अब अलग मुझको न दम भर कीजिये।" तुम बिनु मेरो और न कोऊ कृपारावरी कीजिये। "मीरा के प्रभु गिरिधर नागर मिलि बिछुड़न नहिं दीजिये ॥" प्रभु ने सप्रेम प्रार्थना सुन, माराजी को सदेह अपनी मूर्ति में (प्रायः संवत् १६४५ में ) लीन कर लिया। मीराजी का केवल एक वचमात्र प्रभु के ऊपर रह गया । देखकर सबने "जय जय" कार किया। बाबू कार्तिकप्रसादजी ने और श्रीवियोगीजी ने भी आपका संक्षिम जीवन चरित्र लिखा है। ( श्रीकविकीर्तन "कलियुग मीरा भई गोपिका द्वापर जैसी, कृष्ण-भक्ति-रस लीन मीन हैहै नहिं ऐसी। भाज गिरिधरगोपाल जगत सों नातो तोखो, विमुखन सों मुख मोरि स्याम सों नेहा जोखो ॥२७॥" "राणा ने विष दियो पियो चरनामृत करिकै, बार न बाँको भयो ध्यान पिय को हिय धरिकै। लोक-लाज तज प्रगटि संतसँग गाई नाची, प्रेमविरह-पद रचे लालीगीरधर-रंग-राची ॥२८॥" श्रीमीराजी के अनन्तर, अकवर ने राना के नगर को ले लिया। (वियोगीहरि) यहाँ श्रीमीराबाईजी के उतने ही चरित्र लिखे गये कि जो श्रीप्रिया- दासजी ने लिखे हैं।