पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७४३

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७२४ श्रीभक्तमाल सटीक। (१५०) श्रीप्टथ्वीराजजी। ( ५९६ ) छप्पय । ( २४७) आमेर* अछत कूरम कौ, द्वारिकानाथ दरसन दियौ ॥ श्रीकृष्णदास उपदेस, परम तत्त्व परचौ पायौ। निरगुन सगुन निरूप तिमिर अज्ञान नसायौ । काछ वाच निकलंक मनौ गांगेय युधिष्ठिर। हरिपूजा प्रहलाद, धर्मध्वज धारी जगपर ।। “पृथीराज" परचौ प्रगट तन संख चक्र मंडित कियौ । आमेर अछत कूरम को, हारिकानाथ दरसन दियौ ॥११६॥ (६८) __वार्तिक तिलक । श्रीपृथ्वीराजजी कूर्म अर्थात् कछवाह भामेर नगर के राजा को आमेर ही में श्रीद्वारिकानाथजी ने कृपा करके दर्शन दिया। पयहारी श्रीकृष्णदासजी के उपदेश से श्रापको परब्रह्म तत्त्व का परचौ, अर्थात् साक्षातकार ज्ञान, प्राप्त हुआ। श्रीरामजी के निर्गुण और सगुणरूप के निरूपण से गुरु श्रीकृष्णदासजी ने अज्ञानरूपी अंधकार सब नाश कर दिया। आप कच्छ में निकलंक अर्थात् स्वपत्नीव्रत जितेन्द्रिय श्रीगांगेय (भीष्मजी) के सरिस, सत्य वचन बोलने में श्रीयुधिष्ठिरजी के तुल्य, श्रीहरिपूजन में प्रह्लादजी के समान और सम्पूर्ण जगत् के लोगों से परे (श्रेष्ठ) धर्म की ध्वजा धारण करनेवाले हुए। श्रीपृथ्वीराजजी का यह परिचय प्रगट हुआ कि आमेर ही में द्वारिका के छाप शंख चक्र गदा पद्य के चिह्नों से आपका तन भूषित हुआ। . (५९७) टीका । कवित्त । (२४६) पृथीराज राजा चल्यौ द्वारिका श्रीस्वामी संग, अति रस रंग भखौ, श्राज्ञा प्रभु पाई है । सुनिक दीवान दुख मानि, निसि कान लग्यो, कही “पग्यौ साधुसेवा भक्ति पुर छाई है ॥ देखिय

  • "आमेर" आंबेर पाठान्तर ॥ "दीवान"-olds==मुख्य मत्रीप्रधान ॥