पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७४४

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७२५ ++mbar - 14. genimlmart n httli भक्तिसुधास्वाद तिलक। निहारि के बिचार कीजै, इच्छा जोई" "लीज नहीं साथ, जावौ," बात ले दुराई है। प्रायौ भोर भूप हाथ जोरि करि ठादौ रह्यो, कह्यौ "रही देश, सो निदेस न सुहाई है ॥ ४८१॥ (१४८) वात्तिक तिलक । आमेर के राजा श्रीपृथ्वीराजजी, स्वामी श्रीकृष्णदासजी की आज्ञा ते साथ साथ द्वारिकाजी चलने को, प्रेमरंग से भरे सन्नद्ध हुए। यह सुन मुख्य मंत्री ने दुःखित हो रात्रि में जाके श्रीस्वामीजी से प्रार्थना की कि "प्रभो ! राजा साधु-सेवा में पग रहे हैं और पुरभर में भक्ति छा रही है, इस समय इनके यहाँ से चले जाने से साधु-सेवा में विघ्न होगा आप दिव्यदृष्टि से देख विचारके जो अच्छा हो सो कीजिये।"श्रीपयहाराजी ने कहा कि "तुम अच्छा कहते हो । जागो, हम उनको साथ नहीं ले जायँगे।" श्रीस्वामीजी ने मंत्री की बात छिपा रखी, प्रातःकाल राजा आके स्वामीजी के आगे चलने के लिये हाथ जोड़ खड़े हुए, आपने आज्ञा दी कि "तुम यहाँ ही नगर में रहो, साधु-सेवा करो ॥" सुनके राजा को आज्ञा प्रिय न लगी। (५९८) टीका । कवित्त । (२४५) "द्वारावतीनाथ देखि, गोमती स्नान करौं, धरौं भुज छाप," आप मन अभिलाखिये । “चिन्ता जिनि कीजै तीनों बात इहाँ लीजे अजू, दीजे जोई आज्ञा सोई सिर धरि राखियै ॥ श्राये पहुँचाय दूर, नैनजल पूर बहै, दहै उर भारी, "कहाँ संग रस चाखियै ?"। बीते दिन दोय, निसि रहे हते सोय, भोइ गई भक्ति गिरा पाय बानी मधु भाखिये ॥४८२॥ (१४७) वात्तिक तिलक। स्वामीजी से राजा ने प्रार्थना की कि श्रीदारिकानाथ के दर्शनकर गोमती स्नान करूँगा, और भुजाओं में शंखचक्रादि छाप लूंगा, आप कृपाकर मुझे साथ ले चलने की इच्छा करिये। आपने उत्तर दिया "तुम चिंता मत करो, दर्शन, स्नान, छाप, तीनों यहाँ ही लो।"सुनकर राजा ने कहा “जो आपकी आज्ञा है सो सीसपर रखता हूँ॥"