पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७४५

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+vaMMIGROUPPOH श्रीभक्तमाल सटीक । स्वामीजी ने द्वारिका को यात्रा किया,आप बहुत लम्बे तक पहुँचाके लोट पाये । नेत्रों में प्रेमजल की धारा वहने लगी, हृदय में बड़ा अनुताप हुथा। मन में विचारने लगे कि स्वामीजी के साथ का सुख मुझ मंद- भागी को न मिला, इस अनुताप से दो दिवस बीते तीसरी रात्रि में सोने लगे,श्रीकृष्णदासजी की भक्तियुक्त वाक्य श्रीद्वारिकाधीशजी के मन में व्यास हो गई, इससे साक्षात् आके राजा से मधुर वाणी बोले ॥ (५९९) टीका । कवित्त । ( २४४ ) "अहो पृथ्वीराज" कही, स्वामी ही सीवानी लही, पायो उठि देशीर वाही गैर प्रभु देखे हैं। घुम्यौ करो कान धरो, गोमती स्नान करो, सुनि के अन्हायौं, पुनि वे न कहूँ पेखे हैं ॥ संख चक्र आदि छाप तन सब व्याप गई, भई यों अबार रानी आय अवरखे हैं । बोले "रह्यो नीर में सरीर, लै सनाथ कीजै, लीजै नाथ हिथे," निज भाग करि लेखे हैं ॥ ४८३ ॥ (१४६) वात्तिक तिलक । प्रभु ने श्रीकृष्णदासजी कीसी ही वाणी से पुकारा कि “ऐ पृथ्वी- राज ।” राजा सुनके उठे और दौड़के वहाँ ही आये, देखें तो श्रीद्वारिका- नाथजी खड़े हैं, प्रदक्षिणा कर साष्टांग प्रणाम किया । प्रभु ने आज्ञा दी कि “कानों को मुंद गोमतीजी में स्नान करो।" ___ प्राज्ञा सुन राजा ने प्रत्यक्ष श्रीगोमतीजी में स्नान किया, फिर प्रभु अंतर्दान हो गये । उनको न देखा और शंखचक्र आदिक छापे राजा के तन में सब अंकित हो गई। उठने में कुछ विलंब देख रानी ने श्रा देखा, आपने कहा कि "मैं गोमती के जल में रहा हूँ, मेरे शरीर और वस्त्रों का जल लेकर तुम भी स्पर्श करके अपने शरीर को सनाथ कर लो॥” (कोई कहते हैं कि गोमती ही जी प्रत्यक्ष थीं उसी में रानी को स्नान कराया) और कहा कि "हृदय में बारिकानाथजी का ध्यान भी कर लो,” रानी ने वैसा ही कर अपने बड़े भाग माने ॥