पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७४६

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७२७ AMANARTHAMushnamu T HANRAINMEduPMH-AntaJANMALEnavar भक्तिसुधास्वाद तिलक-1 (६०० ) टीका । कवित्त । ( २४३ ) भयौ जब भोर, पुर बड़ी भक्ति सोर पखो, कलो पानि दरसन भई भीर भारी है। आये बहु संत, श्री महंत बड़े बड़े धाये, अति सुख पाये, देह रचना निहारी है ।। नाना भेट आवे, हित महिमा सुनावै, राजा सुनत लजावै, जानी कृपा बनवारी है। मंदिर करायो, प्रभुरूप पधरायौ, सब जग जस गायो, कथा मोको लागी प्यारी है ॥ ४८४॥ (१४५) वात्तिक तिलक । जब प्रभात में राजा बाहर आये, और सब लोगों ने शंख चक्रादि मुद्रा दोनों वाहु में देखे, तब तो नगर भर में आप की भक्ति का बड़ा धूम मच गया. सब दर्शन के लिये आये बड़ी भारी भीड़ हुई. पुर में और पुर के समीप जितने बड़े बड़े भारी संत महंत थे, सब दौड़ आये। आपके देह की रचना देख अति मुखी हुए। भले लोग अनेक प्रकार की भेंट लाते हैं, कोई आपकी भक्ति की महिमा गाते हैं, राजा सुन लजित होकर श्रीवनमाली प्रभु की कृपा विचारते हैं। तदनंतर राजाजी बड़ा भारी मंदिर बनवा प्रभु को पधराके सप्रेम पूजा भजन में तत्पर हुए। सम्पूर्ण जगत् के लोग आपका यश गान करते थे, श्रीपृथ्वीराजजी की यह कथा मुझे बड़ी प्यारी लगी है ॥ (६०१ ) टीका । कवित्त । ( २४२ ) बिन दृगहीन सो अनाथ, बैजनाथद्वार पत्रो, चख चाहै, मास केतिक बिहाने हैं । श्राज्ञा बार दोय चार भई “ये न फेरि होहिं," याको इठसार देखि शिव पिघलाने हैं ॥ "पृथ्वीराज” अंग के अंगोछा सों अंगोछौ जाय, आयकै सुनाई दिज गौरव डराने हैं। नयौ मँगवाय तन छ्वाय दियो छवायौ नैन खुले चैन भयो जन लखि सरसाने हैं॥४८५॥ (१४४) वात्तिक तिलक। एक समय एक अंधा अनाथ ब्राह्मण श्रीवैद्यनाथ महादेवजी के द्वार पर नेत्र प्राप्ति के लिये जा पड़ा, कई मास व्यतीत हो गये स्वप्न में (वा समीपियों के द्वारा)शिवजी ने दो चार बार आज्ञा दी