पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७४९

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A . MundaAMMAnt श्रीभक्तमाल सटीक। (कवित्त २३१ में) कह आये हैं । उनकी संतों में प्रतीति हुई इस लिये रीति प्रीति से सेवा की। अब जिस प्रकार से श्रीहरि को लाई लड़ाया सो नवीन वार्ता सुनिये । मन्दिर में प्रभु की सेवा पूजा होती थी, परन्तु इसको नीचा मान एक सुन्दर बात विचार, ऊपर छत पर बड़ा विचित्र बँगला बनवाया। उसमें चैदोवा, दिव्य सेज, सुन्दर तकिये, बिछौना, ओढ़ना श्रादिक सज सजाके, सुन्दर जड़ाऊ सुवर्ण के पानदान, इत्रदान आदिक सामग्री सब रख, जरी के परदे बारों में लगवाये, भली भांति सजवाया रचना कराया। (६०४) टीका । कवित्त । (२३९) ताकी दारु सीढ़ी, करि रचना, उतारि धरें, भरै दूरि चौकी, आप भाव स्वच्छताई है । मानसी विचारें "लाल सेज पग धार, पान खात लै, उगार डारें, पौढ़े सुखदाई है ॥ तिया हूँ न भेद जाने, सो निसेनी धरी वान, देखें को किशोर सोयौ फिरी भोर आई है। पति कों सुनाई, भई अति मन भाई, वाकों खीमि डरपाई, जानी भाग अधिकाई है ॥ ४८७ ॥(१४२)" वार्तिक तिलक। उस सदन में चढ़ने के लिये केवल काठ की सीढ़ी रक्खी । अपने हाथों सब रचना कर फिर सीढ़ी पृथक् घर देते थे। आपके मन में भावना की निर्मलता थी। इससे अलग चौकी दिया करते । यह मानसी भावना ध्यान करते थे कि "श्रीलालजी सेज पर पधारते हैं, पान खाते हैं, फिर पकिदान में उगाल डाल देते हैं । भक्तों के सुखदाता शयन करते हैं ॥" ___ इस भेद को आपकी स्त्री भी नहीं जानती थी। एक रात वही काठ वाली सीढ़ी लगाकर चढ़के उसने झांक के देखा तो उस सेजपर कोई किशोर श्यामसुन्दर सो रहे हैं । लौट आई फिर प्रभात पाके अपने पति जयमलजी को वह वार्ता सुनाई । आपने सुनके सुखपूर्वक अपना मनोरथ पूर्ण माना और ऊपर से स्त्री को रिसाके डरवाया कि "साव- धान, सुनो, अब ऐसा कभी न करना" पर हृदय में उसका भाग अधिक जाना कि “धन्य है यह जिसने श्रीप्रभु के साक्षात् दर्शन