पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७५०

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७३१ भक्तिसुधास्वाद तिलक । पाये।" भावना हो तो ऐसी हड़ हो । सेवा हो तो यो वित्तशाव्य छोड़कर। आपके अष्टयाम की जय, आपके मानसी भावना की जय ।। (१५२) श्रीमधुकर साहजी। (६०५) टीका । कवित्त । (२३८) मधुकरसाह, नाम कियो लै सफल जाते, भेष गुनसार ग्रहै, तजत सार है। “ोडछे" को भूप, भक्त भूप सुखरूप भयौ, लयौ पनभारी नाके और न विचार है । कंठी धरि आवै काय, पोय पग, पीचे सदा, भाई दखि. खर गर डाखो मालभार है । पाँय परछाल, कही "अाजज निहाल किये, हिये दये दुष्ट पाँव गहे हगधार है ॥ ४८८ ॥ (१४१) वात्तिक तिलक । "श्रीमधुकरसाह" जी, नाम देश बुंदेलखण्ड ओड़छा (टीकमगढ़) नगर के राजा, भक्तराज हुए। अपने नाम का गुण यथार्थ दिखा दिया अर्थात् जैसे मधुकर (अमर) ऊँचे नीचे सब फलों का सार रस और सुगंध ही मात्र लेता है, ऐसे ही ऊँचे नीचे कोई शरीर में हरिभक्त का वेष देख वही सार ग्रहण करते थे, जाति पक्ष नहीं। जो कोई कंठी तिलक धारण कर श्रावै उसी का वरण धोके चरणामृत लेते परिक्रमा दण्डवत् करते थे। थापका ऐसा व्रत भारी था। यह देख आपके भाइयों को अच्छा नहीं लगता था, दुष्टों ने एक दिवस गधे के तिलक कर, बहुत से माला पहनाय, आपके निवास की ओर कर दिया। आप देखते ही उस गर्दभ का चरण धो, चरणामृत ले, उसको भोजन कराया, और बोले “आज मैं कृतार्थ हुआ कि गर्दभ भी कंठी तिलक धारणकर मेरे घर पाते हैं।" दो० "भूतल में अबलों मिले, दै पद के बहु संत । चारि चरन के अाज ही, देख्यों संत लसंत ॥१॥" दुष्ट सब श्रापकी निष्ठा देखकर नेत्रों में प्रेमजल भर त्ररणों पर पड़े और हरिसम्मुख हुए॥