पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७५६

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । ७३७ (६१२) टीका । कवित्त । (२३१) खेमालरतन तन त्याग समै अश्रुपात, बात सुत पूछ अजू नीके खोलि दीजिये । कीजै पुण्य दान बहु, संपति अमान भरी, धरी हिये दोई सोई कहा सुनि लीजिये ॥ विविधि बड़ाई में समाई मति भई पैन नितही बिचार अब मन पर खीजिये । नीर भरि घट सीस धरिकै न ल्यायो और नूपुर न वाँधि नृत्य कियौ नाहीं बीजिये ॥४६॥ (१३८) वार्तिक तिलक । श्रीखेमालरनजी शरीरत्याग के समय श्रीप्रभुकृपा से थे तो बड़े सावधान, परंतु अश्रुपात बहुत होते थे। देखके आपके पुत्र रामरयनजी पूछने लगे कि "आप खोलके कहिये किस बात का दुःख है ? जो आज्ञा हो सो पुण्य दान करें, असंख्य द्रव्य भरी धरी है। आप बोले "हमारी दो अभिलाषाएँ हैं सो सुनो, राजसी विविध बड़ाई में हमारी मति लीन थी इससे दोनों बातें नित्य ही विचारते ही रहे, परंतु हुई नहीं, इसलिये अब हम मन पर खीझ दुःख सहते हैं एक तो यह कि प्रभु के पूजनहेतु जल भर माथे पर घट धर, न लाये, दूसरी पग में नूपुर बाँध प्रभु के आगे नृत्य न किया, और शरीर भव छूटता है।" (६१३) टीका । कवित्त । (२३०) रहे चुपचाप सबै जानी काम आप ही को, वोल्यौ यो किशोर नाती आज्ञा मोकों दीजिये । यही नित करौं नहीं टरौं जौलौं जी, तन मन में हुलास उठि, छाती लाय लीजियै ॥ बहु सुख पाये, पाये वैसे ही निवाहे पन, गाये गुन लाल प्यारी अति मति भीजिये। भक्ति विसतार कियो बैस लघु भीज्यौ हियो दियो, सनमान संत सभा सब रीमिये ।। ४६२ ॥ (१३७) बात्तिक तिलक। श्रीखेमालरत्नजी के वचन सुन पुत्रादिक सब कोई चुप हो रहे यह जान कि “यह तो आप ही का काम था, हमारा नहीं" परन्तु आपके नाती (पोता) श्रीकिशोरसिंहजी, उठ खड़े हो, हाथ जोड़ बोले “मुझको आज्ञा हो, दोनों नित्य नियम से जब तक जीऊँगा, तब तक श्रीहरिकृपा से बड़े हुलास से करूँगा।"