पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७५८

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७३९ muHAMMilants 44 H- भक्तिसुधास्वाद तिलक। जैसे पूर्ण चन्द्र को देख सानंदित समुद्र वदै, इसी प्रकार भगवद्दासों को

देख मिलके श्राप अानन्द से बढ़ते थे।

(१५८) श्रीचतुर्भुजजी (कीर्त्तननिष्ठ) (६१५) छप्पय । (२२८) - (श्री) “हरिवंश" चरनबल "चतुरभुज," "गोंड" देश तीरथ कियो।गायौ भक्ति प्रताप सबहिं दासत्व दृढ़ायौ। राधावल्लभ भजन अनन्यता वर्ग बढ़ायौ ॥ “मुरलीधर की छाप कवित अतिही निर्दूषन। भक्तनि की अँघिरेनु वहै धारी सिरभूषनासतसंगमहाआनन्द मै, प्रेमरहत भीज्यौ हियो। (श्री) "हरिवंश" चरनबल "चतुरभुज," "गोंड़" देश तीरथ कियौ ॥ १२३॥ (६१) वात्तिक तिलक । अपने गुरु श्रीहितहरिवंशजी के चरणों के बल से, श्रीचतुर्भुजजी ने "गोंडवाना देश" अधम को, तीर्थ समान पवित्र कर दिया। श्रीभक्ति का प्रताप भले प्रकार गान कर वहाँ के सब जीवों को श्रीहरिदासता दृढ़ा दी और श्रीराधावल्लभजी के भजन अनन्यता का परिवार अतिशय बढ़ाया, अपनी कविता में “मुरलीधर" की छाप रखते थे, आपका कवित्त अति ही निर्दूषण होता था, भगवद्भक्तों के चरणों की रेणु आपके भाल का भूषण थी। सत्संग में, महाआनन्द देनेवाले प्रभु के प्रेम से, आपका दुदय भीगा रहता था। ___ कविता की बानगी लीजिये। (छप्पय) "श्वपच पहिरि जज्ञोपवीत, कर कुशनि गहत जब। करम करें अध परै डरै पुनि विश्व त्रास तव ॥ पुनि ललाट पर तिलक देय तुलसीमाला धरि । हरिके गुन उच्चरै पाप कुल कर्महि परिहरि ॥ चतुर्भुज पुनीत अंत्यज भयो मुस्लीघर सरनौ लियो। तेहि पाले किन ! लागिय जिन लोह पलटि कंचन कियो ।"