पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७५९

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७४० + - - . .. - . . श्रीभक्तमाल सटीक। दो० "हरिवंश, नाम ध्रुव' कहत ही, बाढ़े आनंदवेलि । प्रेमरंगी उर जगमग, नवल जुगलबर केलि ॥१॥ निगम ब्रह्म परसत नहीं, सो रस सब ते दूरि । कियौ प्रगट हरिवंशजी, रसिकनि जीवनिमूरि॥२॥" (६१६) टीका । कवित्त । (२२७) । गोंडवाने देश, भक्ति लेसहूँ न देख्यों कहूँ, मानुस को मारि इष्टदेव को चढ़ायौ है । तहाँ जाय देवता के मंत्र लै सुनायो कान, लियो उन मानि, गाँव सुपन सुनायो है ।। “स्वामी चतुर्भुजजू के बेगि तुम दास होड, नातो होय नास सब" गाँव भज्यो भायौ है। ऐसे शिष्य किये, माला कंठी पाय जिये, पाँव लिये मन दिये, औ अनंत सुख पायो है ॥ ४६३॥ (१३६) वात्तिक तिलक। दक्षिण नर्मदा के निकट "गोंडवाने" देश में श्रीचतुर्भुजजी ने कहीं। भक्ति का लेश भी न पाया, और दुष्टता ऐसी देखी कि वहाँ के लोग मनुष्य को मार अपनी इष्ट देवता काली को चढ़ाया करते थे। वहाँ जाके उस देवता के कान में आपने भगवत्मंत्र सुनाया। देवता ने श्रद्धापूर्वक मंत्र ग्रहण कर उस ग्राम के सब लोगों को स्वप्न में शिक्षा की कि "तुम सब शीघ्र स्वामी श्रीचतुर्भुजजी के दास (शिष्य) हो जागो, भगवत् की भक्ति करो, नहीं तो सबका नाश हो जायगा।" सुनते ही सम्पूर्ण ग्राम के लोग दौड़के भाये। आपने सबको शिष्य कर माला कंठी तिलक धारण कराया, सबने आपके चरणों में प्रणाम किये । सबने हरिभक्ति-मार्ग में मन दिया, सब अति सुख को प्राप्त हुए। श्रीचतुर्भुजजी और उन देवीजी की जय ॥ दो० "सकल देस पावन कियो, भगवत् जसहिं बढ़ाइ । जहाँ तहाँ निज एक रस, गाई भक्ति लड़ाइ॥" (श्रीध्रुवदासजी) (६१७) टीका । कवित्त । (२२६) भोग लै लगा नाना, संतान लड़ावै, कथा भागवत गर्वि, भाव