पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७६१

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७४२ and- श्रीभक्तमाल सटीक 1 नैन भरि आये नीर बोल्यो “धन लियो है"। कहै नृप साँचौ हेकै झुठो जिन हजै संत, महिमा अनंत कही “स्वामी ऐसौ किया है। भूप सुनि आयो उपदेश मन भायो, शिष्य भयौ नयौ तन पायो भीजि गयौ हियो है ॥ ४६५ ॥ (१३४) बात्तिक तिलक । जब वह शपथ में शुद्ध हो गया तब राजाने जाना कि इसने साधु को झूठ ही चोरी का कलंक लगाया है, इससे अपने जनों को श्राज्ञा दी कि "इसको मार डालो।" लोग आज्ञा सुन उसको वध करने को चले । तव साधु (जो पहिले जन्म में चोर था) उसका वध कैसे सहिसकें, नेत्रों में जल भर, बोले कि "इसको मारिये मत, मैंने धन लिया है।" राजा वोला कि "हे संत । तुम तो सच होकर अब झूठ ही चार क्यों बनते हो ?” उत्तर दिया कि "यह श्रीस्वामीजी की अनंत महिमा है कि मुझे सच्चा बना दिया।" अपना सब वृत्तांत कह गया ॥ राजा ने सुनके उसको छोड़ दिया, और यह मन में निश्चय किया कि "मैं भी शिष्य हो जाऊँ" और शिष्य हो ही गया। नवीन तन पाकर प्रभु के प्रेम में राजा का हृदय भीग गया। (६१९) टीका । कवित्त । (२२४) पकि रह्यो खेत, संत आयकर तोरि लेत, जिते रखवारे मुख सेत सोर किया है । कह्यो स्वामी नाम, सुन्यो कही "बड़ी काम भयौ, यह तो हमारो,” सोई आप सुनि लियो है । लेक मिष्टान आय, सुमुख बखान कीनो, “लीनों अपनाय आज भीज्यौ मेरों हियौ है । ले गये लिवाय नाना भोजन कराय, भक्ति चरचा चलाय, चाय हित रस पियौ है ॥ ४६६ ॥(१३३) - वात्तिक तिलक । एक समय श्रीचतुर्भुजजी अपने गृह में थे, आपका गेहूँ-चने का खेत पक रहा था, संतों की जमात आकर तोड़ने लगी, रखवारों ने "पुकारा कि "श्रीचतुर्भुजजी का खेत है" सन्त बोले “बड़ी अच्छी बात हुई, तब तो यह हमारा ही अन्न है।" और होरा के लिये चने-गेहूँ की