पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७६३

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.. ७४४ श्रीभक्तमाल सटीक । मयूर के सरिस आनंदित होते हैं । जगत् की जाड़तारूपी जाड़ाहरने के लिये श्रीकृष्णदासजी ने श्रीसूर्य के सरीखा देह धारण किया था। दो० "युगल प्रेम रस अन्धि में, पखो प्रबोध मन जाय । बृन्दावन रस माधुरी, गाई अधिक लड़ाय ॥" (ध्रुवदास) (१५६) श्रीसंतदासजी। (६२१) छप्पय । (२२२) बिमलानंद प्रबोध बंश, “संतदास” सीवाँ धरम ॥ गोपीनाथ पद राग, भोग छप्पन भुंजाये। पृथु पद्धति अनुसार देव दंपति दुलराये ॥ भगवत भक्त समान, ठौर है कौ बल गायौ । कबित सुर सौ मिलत भेद कछु जात 'न पायौ। जन्म, कर्म, लीला, जुगति, रहसि, * भक्ति भेदी मरम। बिमलानंद, प्रबोध बंस, “संतदास" सीव धरम ॥१२५॥ (८६) वात्तिक तिलक। श्रीविमलानंदजी प्रबोधन के वंश में श्री "संतदासजी," भगवद्धा की सीमा ( मर्यादा) हुए। श्रीगोपीनाथ के चरणों में आपका अति अनुराग था, सो नित्य छप्पन भोग अर्पण करते थे। जिस प्रकार राज पृथु सप्रेम प्रभु की पूजा करते थे उसी मार्ग के अनुसार दुलार प्यार श्रीराधाकृष्णजी की पूजा किया करते ॥ ___ भगवत् और भगवद्भक्त दोनों का एक समान बल प्रताप गान किया। और आपके कवित्त श्रीसूरदासजी के कविच में ऐसा मिल जाता कि कुछ भी भेद नहीं जान पड़ता था। उस कविता में प्रभु के जन्म, कर्म, लीला को युक्तिपूर्वक बखान किया, क्योंकि आप रहस्य भक्तिभेद का मर्म (छिपी बातों के) जाननेवाले थे॥ ॐ रहसि रहस्य, रास ॥