पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७६४

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७४५ भक्तिसुधास्वाद तिलक। (६२२) टीका । कवित्त । (२२१) बसत "निवाई" ग्राम, स्याम सों लगाई मति, ऐसी मन आई, भोग छप्पन लगाये हैं। प्रीति की सचाई यह जग में दिखाई, सेर्दै जगन्नाथदेव श्राप रुचि सौं जो पाये हैं। राजा को सुपन दियो, नाम ले प्रगट कियो, “संत ही के गृह में तो जेंवों यों रिझाये हैं।" भाक्ति के अधीन, सब जानत प्रवीण, जन ऐसे हैं रंगीन, लाल ठोर ठौर गाये हैं ।। ४६७ ॥ (१३२) वात्तिक तिलक । श्रीसंतदासजी निवाई ग्राम में वसते थे । श्रीश्यामसुन्दरजीसे अपनी मति लगाई। मन में उत्साह हुआ सो नित्य छप्पन भोग लगाया करते थे। आपकी सची प्रीति देख श्रीजगन्नाथजी बड़ी रुचि से आप ही के यहाँ भोजन करते थे। कुछ दिन में गृह में जो धन था सो भोग में उठ गया, तब प्रभु ने विचारा कि “मेरे दास का मनोरथ प्रण अन्यथा न होय,” इससे राजा को स्वप्न दिया, आपका नाम प्रगट कर कहा कि "मैं तो संतदास ही के गृह में नित्य छप्पन भोग भोजन करता हूँ। उसने मुझे रिझा लिया है अर्थात् उनको मेरे भोग के लिये धन और सामग्री दिया करो।" आपकी श्राज्ञा सुन राजा ने वैसा ही किया ॥ श्रीलालजी रंगीले, भक्ति के ऐसे अधीन हैं। सब प्रवीन जन जानते हैं। क्योंकि प्रभु की भक्ति विवशता ठौर ठौर में गान की गई है । भक्तवत्सल रंगीले की जय ॥ (१६०) श्रीसूरदास मदनमोहन। (३२३) छप्पय ।(२२०) (श्री) मदनमोहन सूरदास की, नाम श्रृंखला जुरी अटल ॥गानकाव्यगुणराशि, सुहृद, सहचरिअवतारी। राधाकृष्ण उपास्य रहसि सुख के अधिकारी॥ नवरस मुख्य सिंगार विविध भाँतिन करि गायौ। बदन उच्च-