पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७६६

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MImp4InNavampitAIMER भक्तिसुधास्वाद तिलक । ७४७ मोहन" लिखा । सो यही विख्यात हो गया। आपके दोनों नेत्र फूले कमल के समान थे, प्रभु का प्रेमरंग पीके सुन्दर अनुराग से झूलते मृतक सरीखे देहाभिमान को तज, स्वस्वरूप से जीवित रहे । और अपने सत्संग से और जीवों को भी सचेत किया । सो दिल्लीपति की ओर से सँडीले के अधिकारी (अमीन) हुए। आपकी प्रभु में प्रीति रीति नवीन थी। यहाँ (सँडीले) का गुड़ बहुत अच्छा देख विचार किया कि इस गुड़ का मालपुश्रा श्रीमदनगुपाललालजी को प्रिय लगेगा, इस प्रेम के कौतुक में पड़े। यद्यपि सँडीले से वृन्दावन तक के भाड़ा का दाम बीसगुना पड़ा तो भी गाड़ी में लाद के भेज ही दिया । वह गुड़ वृन्दावन में आया, रात्रि बहुत बीत गई, प्रभु का शयन हो गया था, परंतु श्यामसुन्दर की आज्ञा स्वप्न में हुई कि "इसका मालपुआ अभी अभी भोग लगाओ।" सबों ने आज्ञानुसार उसी समय मालपुत्रा बनाया। श्रीप्रेमग्राहकजी ने जाग के भोजन किया। (६२५) टीका । कवित्त । (२१८), पद ले बनायो, भक्तिरूप दरसायो, दूर संतान की पानहीं की रक्षक कहाऊँ मैं । काहू सीखि लियो साधु लियो चाहै परचेकों आये द्वार मंदिर के खोलि कही पाऊँ मैं ॥ रह्यो बैठि जाय जूती हाथ में उठाय लीनी, कीनी पूरी आस मेरी निसि दिन गाऊँ मैं । भीतर बुलाये श्रीगुसाई बार दोय चार, सेवा सौंपी सार कह्यौ जन पग ध्याऊँ मैं ||४६६ (१३०) . वात्तिक तिलक। __ आपने एक पद बनाया, उसमें दुर्लभ अनन्य भक्ति का रूप दर्शाया, अंत में यह पद रक्खा, "सूरदास मदनमोहनलाल गुण गाऊँ । संतन की पानहीं को रक्षक कहाऊँ।" इस पद को किसी साधु ने सुन सीखके परीक्षा लेनी चाही, श्री- मदनमोहनजी के दर्शन को आए, द्वार में "सूरध्वज"जी थे, साधु ने जूती आपके समीप उतारके कहा कि "देखना, मैं आता हूँ। और भीतर जाके बैठ रहे। आप पदत्राणों को हाथ से उठाकर बोले "अब तक तो मैं अपनी अभिलाषा को दिन रात गान ही मात्र करता था, परंतु आज संत ने मेरी अमिलापा पूर्ण किया।"