पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७६७

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७४८ श्रीभक्तमाल सटीक। मंदिर के भीतर से श्रीगुसाईजी ने दो चार बार बुला भेजा, आपने प्रार्थना कर भेजी कि “आज मुझे संत ने सारांश सेवा दी है । सो सेवा मैं संतचरण ध्यानपूर्वक कर रहा हूँ, अभी इससे निवृत्त होकर दर्शन करूँगा।" यह सुन वह संत और गुसाइजी अति प्रसन्न हो, आकर हृदय में लगाया, और दोनों ने श्रापकी अति प्रशंसा की ॥ (६२६) टीका । कवित्त । (२१७) पृथीपति संपति ले साधुनि खवाइ दई, भई नहीं संक यों निसंक रंग पागे हैं। आये सो खजानो लैन मानौ यह बात हो पाथर लै भरे श्राप प्राधी निसि भागे हैं ।। रुको लिखि डारे, दाम "गटके ये संतान ने, याते हम सटके हैं” चले जब जागे हैं। पहुँचे हजूर, भूप खोलिक संदुक देखें, पेखें आँक कागद मैं रीमि अनुरागे हैं ।। ५०० ॥ (१२९) वात्तिक तिलक । यह सँडीले की वार्ता है कि पृथ्वीपति ( वादशाह) की तेरह लाख द्रव्य (रुपये) साधुवों को खिला दिया, मन में कुछ भी भय वा शंका न हुई, ऐसे अशंक प्रेमरंग से पाप पगे थे। जब दिल्ली से नृपति के भेजे लोग रुपये लेने आये, तव मंजूषाओं में पत्थर भरके ताले जड़ दिये। प्रत्येक में यह पद लिख लिखके डाल दिया, (पद) “तेरह लाख सँडीले उपजे, सब साधुन मिलि गटके । सूरदास मदनमोहन वृन्दा- बन को सटके ।।" आप आधी रात को (जग के) भागे । जब “संदूकें" दिल्ली में पाई, तब बादशाह ने खुलवाके देखा तो पत्थर ही पत्थर भरे थे, वे रुके भी निकले । पढ़े गए तो बादशाह अनुराग से प्रसन्न हुए। (६२७) टीका । कवित्त । (२१६) लैन को पठाये, कही निपट रिझाये हमैं, मन मैं न ल्याये, लिखी १ "खजानो"=xs=द्रव्यसमूह, द्रव्यागार, खजाना ।२ "रुक्का"=x5=पत्र, लेख, सक्षिप्त पत्र । ३ "हुजूर" -सामने, साक्षात् । ४ "सदूक"= Se=बाक्स, मंजूषा, काठ की पिटारी॥ + "सडीले के अमित धन सन्तन ने गटके । राजभय से मदनमोहन आधीरात सटके।"