पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७६८

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७४९ भक्तिसुधास्वाद तिलक । "वन तन डालौ है"। टोडर' दिवान कह्यो “धन को विरान कियो, ल्यावोरे पकरि" मूढ फेरिक संभाखौ है । लैगये हुजूर, नृप बोल्यो "मोसों दूई राखौ, ऐसौ महाका सौपि दुष्ट कष्ट घाखौ है । दोहा लिखि दीनो “अकबर" देखि रीमि लीनो, “जावो वाही ठोर तो दवं सब वाखौ है"। ५०१॥ (१२८) वात्तिक तिलक । भाप भागके श्रीवृन्दावन में आये, “अकबरशाह" ने श्रापके लेने के लिये मनुष्य भेजा कि जाकर कहो कि “तुमने रुपये संतों को खिला दिये सो हम बहुत प्रसन्न हुए, अब तुम हमारे पास आवो।" आपने उत्तर लिख भेजा कि “मैंने इस शरीर को वृन्दावन में डाल दिया है, अब मुझे वहाँ मत बुलाइये। बादशाह माना परंतु बादशाह के दीवान "टोडरमल" ने यह कहकर “कि इसने धन को नष्ट किया” लोगों को भेजा कि “जाओ, पकड़ लाओ।" उस दुष्ट ने बादशाह की मति फेर दी। लोग भाके श्रापको पकड़ लेगये। बादशाह ने कहा “मेरे पास मत लाओ”। तब दुष्ट टोडर ने "दसतम" नामक कारागाराध्यक्ष (जेलखाने के अधिपति) को सौंप दिया । उस दुष्ट ने आपको बहुत कष्ट दिया। तब एक दोहा लिखके आपने अकबर के पास भेजा। दो "यक तम, अधियागे कर, शून्य दई पुनि ताहि । __ "दसतम',ते रक्षा करो, दिनमान अकबर शाह ।।।" दोहा देख विज्ञ अकबर ने, बहुत प्रसन्न हो, श्रीकृपा से आज्ञा दी कि "तुम पर हमने तेरह लाख द्रव्य निछावर किया, तुम सुखपूर्वक वृन्दावन चले जाओ। (६२८) टीका । कवित्त । (२१५) आये वृन्दावन, मन माधुरी मैं मीजि रह्यो, कहाँ जोई पद, सुन्यौ रूप रस रास है । जा दिन प्रगट भयौ, गयौ शत जोजन पे, जन पै सुनत भेद वादी जग प्यास है ॥ "सूर” द्विज दिजनिज महल टहल १ "दीवान" -प्रधान, अधिकारी । २ "बिरान" -उजाड़, नष्ट, क्षय । ३ "हुजूर' सामने । ४ "दूर" समीप नही, फैलावे ।।