पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७६९

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७५० श्रीभक्तमाल सटीक। पाय चहल पहल हिये जुगल प्रकास है । मदनमोहन जू हैं इष्ट इष्ट महामभु अचरज कहा कृपादृष्टि अनायास है ।। ५०२ ॥ (१२७) वात्तिक तिलक। राजराजेश्वर अकबर की आज्ञा पा, श्रीवृन्दावन में श्रा, श्रीयुगल माधुरी में आपने मन को भिगा दिया, फिर जो पद आपने बनाये सा सुनने में रूप रस का रास ही जान पड़ता था, जिस दिन पद प्रगट होता उसी दिन चार सौ कोस पहुंच जाता था। और उस पद का अथे काव्य रस भेद सुनते ही जगत् को प्यास बढ़ती थी॥ सूरध्वज द्विज, अपने प्रभु के महल की टहल पाके अति आनंदित हुए । युगल चन्द्र का प्रकाश हृदय में छा रहा, सो ऐसा होना योग्य ही है, क्योंकि आपके श्रीमदनमोहनजी और महाप्रभुजी इष्ट थे, दोनों की कृपादृष्टि से युगल प्रकाश हृदय में होना आश्चर्य नहीं। (१६१)श्रीकात्यायिनीजी। (६२९ ) छप्पय । ( २१४ ) कात्यायिनी के प्रेम की, बात जात कापै कही। मारग जात अकेल, गान रसना जु उचारै । ताल मृदंगी वृक्ष, रीझि अंबर तहँ डारै। गोप नारि अनुसारि गिरा गदगद आवेशी। जग प्रपंच ते दरि, अजा परसैं नहिं लेशी। भगवान रीति अनुराग की, संत साखि मेली सही । कात्यायिनी के प्रेम की, बात जात कापै कही॥१२७॥(८७) वात्तिक तिलक । श्री “कात्यायिनी" जी के प्रेम की बात किससे कही जा सकती है। आपकी यह दशा थी कि अकेली मार्ग में चलती हुई सरस रसना से प्रभु सुयश गाती ऐसे प्रेमावेश में छक जाती थीं कि जो वृक्षों में पवन लगने से शब्द होता था उसको जानतीं कि ये मेरे