पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७७०

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Automaan भक्तिसुधास्वाद तिलक । ७५१ गान के साथ मृदंगादि बाजा बजाते हैं, इससे उसके ऊपर रीझके अपने वन भूषण दे डाला करती थीं । आपका श्रीकृष्णचन्द्रजी में गोपवधू जनों के समान ही प्रेम था। प्रभु के गुणानुवाद करने में अनुराग के आवेश से चाणी गद्गद हो जाती थी। आपके चित्त में जगत्प्रपंच का भान ही नहीं और माया का स्पर्श लेश नहीं । श्री “कात्यायिनी जी की भगवत्अनुराग की रीति देख संतजनों ने यही ठीक किया कि बस अनुराग इसी का नाम है ॥ (१६७) श्रीमुरारिदासजी। (६३०) छप्पय । (२१३) कृष्णबिरह कुंती सरीर, त्यौं “मुरारि” तन त्यागियौ ॥ विदित "बिलौंदा" गाँव देस मुरधर सब जानै । महा- महोच्छौ मध्य संत परिषद परवान ॥ पगनि घूघुरू बाँधि रामको चरित दिखायौ। देसी सारंगपानि, हंस तासंग पठायौ॥ उपमा और न जगत में, "पृथा" बिना नाहिन बियौ । कृष्ण बिरह कुंती सरीर, त्यौं "मुरारि" तन त्यागियौ ॥ १२८ ॥ (८६) वात्तिक तिलक। श्रीकृष्ण चन्द्रजी का विरह सुनते ही जिस प्रकार कुंतीजी ने शरीर तज दिया उसी प्रकार श्रीसीतारामचन्द्रजी के विरह का पद गान ध्यान करते ही, श्री "मुरारिदास" जी ने भी शरीर को त्याग दिया । श्राप मारवाड़ देश में विख्यात बिलौदा (बलवंडा) गाँव में विराजते थे, और प्रति संवत् में महामहोत्सव करते थे। एक समय के महोत्सव में भगवत्पारषदों के समान अनेक संत विराजमान थे, वहाँ आपने अपने चरणों में नूपुर बाँधकर श्रीरामजी का चरित्र ऐसा गान किया कि उस सप्रेम शब्द से सबको प्रभु का रूप और चरित्र नेत्रों में झलक पड़ा, अंत में आपने देशीय विधान