पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

+AND + - - - - - - - - -- - ७५२ श्रीभक्तमाल सटीक । से ऐसा आलाप किया कि श्रीरघुनन्दन शाङ्गपाणि के वनगवनरूप में चित्त प्रत्यक्ष पहुँच गया। प्रभु के साथ ही इंस (जीवात्मा) को भी भेज दिया। शरीर ऐसा ही रह गया । आपके तन त्यागने की उपमा श्री कुंतीजी को छोड़ और है ही नहीं ॥ (६३१) टीका । कवित्त । (२१२) श्रीमुरारिदास रहे राजगुरु, भक्त-दास श्रावत स्नान किये कान धुनि कीजिये । जाति को चमार करै सेवा सो उचारि कहै "प्रभु चरणामृत को पात्र जोई लीजियै” ॥ गये घरमाँझ वाके, देखि डर काँपि उठ्यो, "ल्यावौ देवो हमैं अहो पान कर लीजियें"। कही “मैं तो न्यून तुच्छ," बोले "हमहूँ तें स्वच्छ जानै कोऊ नाहिं तुम्हें मेरी मति भीजिय" । ५०३ ॥ (१२६) वात्तिक तिलक । श्रीमुरारिदासजी बिलौंदा नगर के राजा के गुरुदेव, और भग- वद्भक्तों के पूरे दास थे। एक दिन स्नान किये चले आते थे, एक ध्वनि आपके कान में पड़ी। एक जाति का चर्मकार अपने गृहमें भगवत् - पूजा कर नित्य पुकारता था कि "जो प्रभुके चरणामृत का पात्र हो सो लेवे।" सोई ध्वनि सुन उसके गृह में आप गये, वह देखते ही भय से काँपने लगा, आप बोले “लाओ, मुझको दो, पान कर जीवन को सुफल करूँ॥ वह बोला “मैं अति तुच्छ, जाति का चमार हूँ।" आप कहने लगे कि "तुम तो भक्तियुक्त हो इससे मुझसे भी पवित्र हो, तुमको कोई जानता नहीं, तुम्हारा प्रेम देख मेरी मति सरस हो गई है।" (६३२) टीका । कवित्त । (२११) बहे दृग नीर, कहै मेरे बड़ी पीर भई, तुम मति धीर, नहीं मेरी जोग्यताई है। लियौ ई निपट हठ, बड़े पटु साधुता मैं, स्यामै प्यारी भक्ति, जाति पाँति लै बहाई है ॥ फैलि गई गाँव, वाको नाँव ले चवाव करें भरै नृप कान सुनि वाहू न सुहाई है । आयौ प्रभु देखिने कों, गयो वह रंग उड़ि, जान्यौ सो प्रसंग, सुन्यो वहै बात छाई है ।। ५०४ ॥ (१२५)