पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७७३

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+44- HAMARHI -- - + ++ + ++ ++ ७५४ श्रीभक्तमाल सटीक । यह दोनों की दशा देख अच्छे लोग कहने लगे कि गुरु और शिष्य ऐसे ही होना चाहिये। दो० "गुरु निमोंही चाहिये, शिष्य न बाँडै प्रीति । स्वास्थ छौड़े, हरि मिले, इहै भजन की रीति ॥१॥ (६३४) टीका । कवित्त । (२०९) ठादौ हाथ जोरि मति दीनता में वोरि, "कीजे दंड मोपै कोरि यों निहारि मुख भाखियै । घटती न मेरी, आप कृपा हो की घटती है, बढ़ती सी करी तातें न्यूनताई राम्दिय" ।। सुनिक प्रसन्न भये कहे ले प्रसंग नये, वालमीकि आदि दै दै नाना विधि साखिये । आये निज गाम, नाम सुनि सब साधु धाये भोई समाज वैसो देखि अभि- लाखियै ॥ ५०६ ॥ (१२३) बात्तिक तिलक । राजा अपनी मति दीनताई में भिगा, हाथ जोड़, खड़ा हुआ, और प्रार्थना करने लगा कि "हे स्वामी ! मुझ पर कोटानि दंड करके शुद्ध कीजिये और जो मेरे मन में मलीनता आई सो मेरी घटती नहीं किन्तु आपकी कृपा ही की घटती थी, अब फिर आपने कुछ अधिक कृपा किया इसीसे नम्रतापूर्वक विनय कर रहा हूँ।" विनय सुन आप प्रसन्न हुए और राजा को बाल्मीकि आदि के प्रसंग उपदेश सुनाये कि देखो, श्वपच बाल्मीकि को श्रीकृष्णचन्द्रजी ने किस प्रकार का सत्कार किया, तथा श्रीशवरी निषादजी को श्रीरघुनन्दनजी ने कैसी बड़ाई दी दिलाई, और गज गणिकादिक भगवद्भक्ति से कैसे पवित्र हुए इत्यादि। सुन राजा प्रेमप्रबोधयुक्त हुआ, फिर आप अपने पूर्व स्थान में आये, आपका प्रा. गमन सुन सब संत मिलने को दौड़े । फिर बड़ा उत्तम समाज हुआ राजा ने देखकर अपना अभिलाष पूर्ण माना। (६३५) टीका । कवित्त । (२०८) आये बहु गुनीजन नृत्य गान छाई धुनि ऐपै संत सभा मन स्वामी गुण देखिये ।जानिकै प्रबीन उठे, नूपुर नवीन बाँधि सप्तस्वर, तीन ग्राम. लीन भये पेखिये ॥ गायौ रघुनाथजू को वनको गमन समै तासँग