पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७७४

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७५५ ७५५ - - -- - - - - - - भक्तिसुधास्वाद तिलक । गमन प्रान चित्र सम लेखियै । भयौ दुख गसि, “कहाँ ये श्रीमुरारि- दास," गए रामपास, एतौ हिये अवरेखिये ॥ ५०७ ॥ (१२२) (बलमुवाँ) सब जग आस तजि आयउँ शरण बीच, सरस सुभाउ सुनि तोर रे बलमुवाँ । मोहि लगि कहवाँ भुलाय दीन्हो ताहि कह, करि लीन्हो हियरा कठोर रे बलमुवाँ । तलफत रहत नयन छबि देखे बिनु, अँसुवा भरत अति जोर रे बलमुवाँ । बिरह बियाधि बस तन जर जर भयो चैन ना परत क थोर रे बलमुवाँ ॥ तदपि न रंचहूँ आवत हिय दया तोहि, अचरज लागत अथोर रे बलमुवाँ। काहे तोहिं कहहिं सुसंत सदग्रंथ श्रति, रसिक उदार सिरमौर रे बलमुवाँ । आश्रित जनन को दुखावन सिखायो कौन, जाते न हेरत हग कार रे बलमुवाँ । दर्शन प्रासहिं पतित पाण जात नाहि, सह निशि दिन दुख धोर रे बलमुवाँ ।। निरखि अनाथ हाथ गहि अपनायो कैसे, प्रथम न देख्यो अघमोर रे बलमुवाँ । अब क्यों धिनात सकुचात औलजात हाय,नयन करत मम ओर रे बलमुवाँ । निज गुण विरद विलोकु रघुवंश बीर, कृपासिंधु अवधकिशोर रे बलमुवाँ । नेहलता चेरी की न सुधि लेहिं सियकंत, होय जैहैं बात यह शोर रे बलमुवाँ ॥ वात्तिक तिलक । उस महोत्सव समाज में बहुत से उत्तम, गुणीजन आये, नाच और श्रीरामयशगान की मंगल धुनि छा गई। परन्तु सभा के अनुरागी संतों के मन में अभिलाषा उत्पन्न हुई कि श्रीस्वामीजी के मुख से गान और नृत्य गुण देखें तो भला। ऐसा जान परम प्रवीण श्रीमुरारिदासजी ने उठके नवीन नूपुर चरणों में बाँध, सप्तस्वर तीन ग्राम में लीन हो आलाप कर, श्रीरघुनाथजी के वनगमन का पद गान किया। उसी समय श्रीरामरूप में तदाकार हो आपके प्राणों ने भी प्रभु के साथ ही गमन किया । शरीर चित्र के समान रह गया। (श्रीजानकीशरण स्नेहलताजी) नये भक्तमाल विरहानल आदि ग्रंथों के रचयिता ।