पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७८१

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44414 + 4 + M- + मात्तिक तिलका ७६२ श्रीभक्तमाल सटीक। (६३८) टीका । कवित्त । (२०५) सौच जल सेस पाय, भूतहू विशेस कोऊ, बोल्यो सुख मानि, हनुमानजू वताए हैं । “रामायन" कथा, सो रसायन है काननि को, आवत प्रथम पाछे जात, घृना छाए हैं। जाय पहिचानि, संग चले उर श्रानि, आए वन मधि, जानि, धाय, पाय लपटाये हैं। करें तिरस्कार, कही "सकोगे न दारि, मैं तो जाने रससार रूप पखौ जैसे गाए हैं ।। ५०६ ॥ (१२०) श्रीकाशीजी में शौच को श्राप “असी" नदी के पार जाते थे। शौचशेष जल स्वाभाविक एक कंटकी वैरके वृक्ष में नित्य डाल दिया करते थे । वहाँ अन्यत्र का एक प्रेत पाकर रहता, और वह वहाँ पानी पीता था, क्योंकि प्रेतों को अशुद्ध ही जल पीने का अधिकार है। एक दिन वह प्रेत प्रगट हो सुखपूर्वक आपने बोला कि "मुझ प्रेत को आपने पानी देकर प्रसन्न किया । कुछ मांगिये।" श्रापने कहा "मुझे श्रीरामचन्द्रजी का दर्शन करादो, और कुछ नहीं चाहना है।" उसने कहा "यह शक्ति तो मुझे नहीं है, परन्तु उपाय बतलाता हूँ। अमुक ठिकाने श्रीरामायण कथा जो उनके कानों की रसायन है सो सुनने श्रीहनुमानजी छुपके आते हैं, अति दीन मलीन रूप धारण कर सबसे प्रथम आते और सबसे पीछे जाते हैं वे आपको दर्शन करा देंगे।" दो० रामकथा जहँ कोउ कहै, तहँ तहँ पवनकुमार। सिर कर अंजलि धरि सुनत, बहत नयन जलधार ॥3॥" श्री गोस्वामीजी उस कथा में जाकर श्रीकपिराज (हनुमत) जी को पहचान बैठे रहे । चले, तब आप भी पीछे पीछे चले। जब वन में निकल आये तब श्रीगोस्वामीजी दौड़ के चरण पकड़ लपट गये। श्रीहनुमानजी कहने लगे छोड़ो २ तुम साधु होकर मुझे क्यों छूते : हो?" आप बोले "मैंने आपको श्रीराम-दास्य रस-सारांश-मूक्ति जान लिया, अब चरण नहीं छोडूंगा।" श्रीहनुमानजी ने तव प्रसन्न :

  • और कोई २ कहते है कि श्रीगोस्वामीजी नित्य गगापार शौच जाते थे वहाँ ही प्रेत मिला!