पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७८२

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । ७६३ होकर जैसा श्रीरामायण में आपका रूप कहागया है सो उस रूपसे 'दर्शन दे मस्तक पर हाथ रक्खा ॥ (६३९) टीका । कवित्त । (२०४) , “माँगि लीजै वर" कही "दीने राम भूप रूप, अति ही अनूप, नित नैन अभिलाखियै ।” कियौ लै संकेत, वाही दिन सो लाग्यो हेत, आई सोई समै चेत "कब छबि चाखिये ॥" आए रघुनाथ, साथ लछिमन, चढ़े घोरे, पट रंग बोरे हरे, कैसे मन राखियै । पाछे नुमान आय बोले “देखे प्रानप्यारे "नेकुन निहारे मैं तो भलें! हरि भाखिये ॥ ५१० ॥ (११६) बात्तिक तिलक । श्रीमारतनन्दनजी ने आपसे कहा "वरदान माँगलो"श्रीगोस्वामीजी ने कहा कि “अति अनूप श्रीराम भुप रूपके दर्शन को मेरे नयन नित्य अति अभिलाषायुक्त हैं सो दीजिये।" श्रीकपीश्वरजी ने संकेत किया कि “चलो चित्रकूटजी में दर्शन होगा। श्रीगोस्वामीजी उसी दिन दर्शनाभिलाष प्रेम उत्कंठा में भरे चले । श्रीचित्रकूट में आकर जहाँ श्रीहनुमानजी ने बताया था वहाँ बैठके यह विचार करने लगे कि “वह शोभामृत मेरे नेत्र कब चखेंगे?" इतने ही में राजकुमार वेष से श्रीरघुनन्दनजी और लाललाइले श्रीलपणजी घोड़ों पर चढ़े मृगयानुकूल हरित वस्त्र धारण किये एक भूगा के पीछे घोड़ा दौड़ाये आकर निकल गये । श्रीगोस्वामीजी ने देखा तो, परन्तु मनमें श्रीराम लक्ष्मणजी का निश्चय न किया। पीछे श्रीहनुमानजी ने आकर पूछा "तुमने प्राणप्यारे प्रभुको देखा?" आप कहने लगे कि “मैंने भले प्रकार निश्चय करके तो नहीं देखा फिर दिखलाने की कृपा कीजिये।" तब श्रीपवनतनयजी ने कहा “अव हम भली भाँति से फिर दर्शन करावेंगे।" सो फिर मन्दा- किनी के तीर में श्रीसीतारामजी सिंहासन पर विराजमान श्रीभरत लालजी पत्र लिये श्रीलक्ष्मण शत्रुघ्न दहिने बायें चंवर चलाते थे