पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७८५

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and + 44- Japarm u dra + + + + + + + + + + + श्रीभक्तमाल सटीक । दियो चले जहाँ पन कियौ, बोले “श्राप नामकै प्रताप मति भीजिये। जैसी तुम जानो तैसी कैसे कै बखानो अहो” सुनिकै प्रसन्न पायो, "जै जै" धुनि रीमियै ॥५१२॥ (११७) वात्तिक तिलक । आपके कहने पर पंडितों ने उन पुस्तकों को वाँच देखे तो ब्रह्महत्या- दिमोचनी श्रीराम नाम की महिमा सत्य सत्य लिखी थी तथापि पंडितों ने कहा कि “लिखा तो है परन्तु कैसे जान पडै कि यह हत्या से छुट गया?" आपने उत्तर दिया कि "जिस प्रकार से तुम लोगों को प्रतीत आवै सो कहो।" पंडितों ने आपस में समंत करके कहा कि "इसके हाथ का पदार्थ श्रीविश्वनाथजी का नन्दी (पाषाण का बैल) भक्षण कर लेवे तब इसको शुद्ध जान पंक्ति में ग्रहण कर लें।" आपने कहा बहुत अच्छा चलिये ॥ ___ थाल में प्रसाद भर के उसके हाथ में देकर समाज सहित नन्दी के पास आये, और श्रीतुलसीदासजी ने विनयपूर्वक नन्दीजी से कहा कि "श्राप श्रीराम नाम के प्रताप से मतिको सरस कर इसके हाथ का प्रसाद पाइये, क्योंकि श्रीराम नाम का प्रताप जैसा आप जानते हैं वैसा मैं नहीं कह सकता।" यह सुनते ही नन्दीश्वरजी प्रसन्न होकर सब प्रसाद पागये । देखके सव सज्जन गोस्वामीजी के विश्वास पर रीझ के “जय जय" धुनि करने लगे। श्रीराम नाम की जय, श्रीतुलसीदास की प्रतीति की जय ! (६४२) टीका । कवित्त । (२०१) आए निसि चोर, चोरी करन हरन धन, देखे श्याम घन, हाथ चाप सर लिये हैं। जब जब श्रावे वान साँधि डरपा, एतौ अति मडराव, ऐप वली दूरि किए हैं। भोर प्राय पू3 “अजू । साँक्रो किशोर कौन ?" सुनि करि मौन रहे, आँसू डारि दिए हैं । दै सबै लुटाय, जानी चौकी रामराय दई, लई उन्हौ दिक्षा सिक्षा, सुद्ध भए हिए हैं ॥ ५१३ ॥ (११६) वात्तिक तिलक । एक समय रात्रि में श्रीगोस्वामीजी के यहाँ कई चोर मिल के धन