पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७८७

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७६८ श्रीभक्तमाल सटीक। कही “जो पै भक्ति करौ सही,” गही तब बात जीव दियौ अभिराम है। भये सब साधु ब्याधि मेटी ले विमुखता की जाकी बास रहै तो न सूझे स्याम धाम है ॥ ५१४॥ (११५) वार्तिक तिलक। श्रीकाशीजी में एक समय एक ब्राह्मण मर गया था। उसकी स्त्री पति के शरीर के साथ सती होने को चली जाती थी । मार्ग में श्रीगो- स्वामीजी को देख दूर ही से चरणों में प्रणाम किया, आपने आशिष दिया कि “सौभाग्यवती हो।" वह बोली “स्वामीजी | मेरे पति का तो शरीर छूट गया है, मैं सती होने जाती हूँ।” पापने कहा कि “अब तो मेरे मुख से निकल गई, जो तुम श्रीरामजी की भक्ति सेवा करो तो इसको जिवा दूं।" उसके कुटुम्ब भर को बुलाके कहा कि “आज से सब श्रीसीताराम नाम जपो और प्रेमभक्ति में परायण हो, तो यह श्रीरामकृपा से जी उठे।" सुनते ही ब्राह्मण के सब परिवार बोले कि "हम सब जन्म भर भजन करेंगे जो यह जी उठे।" मापने कहा “सव हाथ उठाके 'जय- जय श्रीसीताराम' कहो।” सबने ऐसा ही किया । उन सबके साथ वह मृतक भी उठके हाथ उठाके “सीताराम” कहने लगा । उसको जीवित देख "जय-जय” कार धुनि हुई । तब तो वह ब्राह्मण और उसकी स्त्री तथा सब परिवार श्रीराममंत्र ग्रहण कर श्रीरामभक्तियुक्त साधु हो गये। श्रीगोस्वामीजी ने सबकी भक्ति-विमुखतारूपी व्याधि छुड़ा दी कि जिस विमुखता की गंधिमात्र रहने से भी श्रीरामश्यामसुन्दर का धाम नहीं सूझ पड़ता। (६४४) टीका । कवित्त । (१९९) दिल्लीपति पातसाह अहदी पठाये लैन ताको, सो सुनायो सूवै विप्र ज्यायौ जानिये । देखिये कों चाहै नीके सुख सों निबाई, आय कही बहु बिनै गही चले मन भानिये ॥ पहुँचे नृपति पास, आदर प्रकास कियौ, दियौ उच्च आसन लै, बोल्यौ मृदुवानिये । “दीजै १"पातसाह"Husb-बादशाह नृपति, महीप ।