पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७९

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श्रीभक्तमाल सटीक । पावै॥ अजामेल परसंग यह निर्णय परम धर्म के जान। इनकी कृपा और पुनि समुझे "द्वादश भक्त" प्रधान ॥७॥ (२०७) तिलक। स्वामी श्रीनाभाजी अब १२ (दादश) महाभक्तराजों के नामो- चारणपूर्वक भक्तों की “माला" का प्रारम्भ करते हैं। (१) श्रीब्रह्माजी (२) श्रीनारदजी (३) श्रीउमापति शिवजी (४) [१] श्रीसनक [२] श्रीसनन्दन [३] श्रीसनातन [४] श्रीसनत्कुमार (५) श्रीकपिलदेवजी (६) महाराज श्रीमनुजी (७) श्रीमहादजी [ नृसिंहदास] (८) पिता श्रीजनकजी महाराज (६) श्रीभीष्माचार्यजी (१०) श्रीवलिजी (११) परमहंस श्री. शुकदेवजी महामुनि, भागवत, (१२) धर्मस्वरूप (धर्मराजजी, श्री. अजामिल प्रसंग)॥ जो जन श्रीसीतारामचन्द्रजी के इन ऐकान्तिक प्रिय समीपी प्रधान द्वादश भक्तराजों के यश गावें, तिन महाभक्तों के यशों के श्रोता वक्त आदि अन्त तक (सदैव) मंगल पावें। परम धर्म के निर्णय में श्रीअजामिलजी का प्रसंग जानने योग्य है, अर्थात् श्रीनामोचारणाहि भागवत धर्म सप्रेम करने की तो बात ही क्या है, नामाभासमात्र ने भी सब महापातकों का विनाश कर ही दिया ॥ ये द्वादश (ऊपर लिखें हुए श्रीविरंचि महेश नारदादि बारहो,) तो महामसिद्ध भक्तराज हैं ही पुनि और समस्त भक्तमात्र इन्हीं की कृपा उपदेश तथा सत्संग में समझना चाहिये, अर्थात् श्रीलक्ष्मीनारायण की शिक्षित वैष्णवसंप्रदाय के भागवत् धर्म (धर्मविशेष) के प्राचार्य्यवर और प्रचारकशिरोमणि ये ही बारहो तो हुए ॥ दो "विधि, शिव, नारद, शुक, जनक, सनकादिक, प्रह्लाद । ज्यों हरि प्रापुन नित्य हैं, त्यों ये भक्त अनाद ॥"