पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७९१

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७७२ ++ ++ HI P Per श्रीभक्तमाल सटीक । फिर श्रीगोस्वामीजी दिल्ली से काशीजी को चल दिये ! मार्ग में वृन्दावन में आकर श्रीनामास्वामीजी से प्रेमपूर्वक मिले, श्रीनाभाजी ने जो भक्तमाल में आपके यश का बप्पय लिखा था सो सुनाया। श्रीसीता रामकृपास्मरण से दोनों ने परम सुख पाया ॥ (६४७) टीका । कवित्त । (१९६) मदनगोपाल ज को दरसन करि कही, “सही राम इष्ट मेरे दृष्टि भाव पागी है। वैसही सरूप कियो, दियो लै दिखाई रूप मन अनुरूप छवि देखि नीकी लागी है ॥ काहू कही "कृष्ण अवतारीजू प्रसंस महा, राम अंस" सुनि बोले “मति अनुरागी है । दसरथसुत जानौ, सुन्दर अनूप मानौ, ईसता बताई रति बीसगुनी जागी है ॥५१८॥ (१११) बात्तिक तिलक । वृन्दावन में श्रीगोस्वामीजी श्रीनामा स्वामीजी को मिलके अति सुखी हुए, फिर उन्हीं के साथ और वैष्णवों के सहित मुख्य मंदिरों में दर्शन करते, श्रीमदनगोपालजी के मंदिर में आये । वहाँ श्रीगोस्वामीजी दंडवत् प्रणाम करना चाहते थे कि एक कृष्णोपासक ने परशुरामदासजी कृत यह दोहा पढ़ा-- दो० "अपने अपने इष्ट को, नवन करें, सब कोय । इष्ट विहीने परशुराम, नवे सो मूरख होय ॥१॥" दो० परशुराम के वचन, सुनि, मानत हिये हुलास । सीतारवन सँभारि के, बोले तुलसीदास ॥१॥ "कहा कहाँ छवि आज की, भले बने हो नाथ । तुलसी मस्तक तब नवे, धरो धनुष शर हाथ ॥ २॥" "मुरली लकुट दुराय के, धखो धनुष शर हाथ । तुलसीलखि रुचि दास की, नाथ भये रघुनाथ॥३॥" चौ० "यह प्रत्यच्छ देख्यौ संसारा, वृन्दावन माच्यो जयकारा ।" एक समय ज्ञानगूदरी में श्रीगोस्वामीजी जा विराजे किसी ब्रजवासी ने कहा कि "श्रीकृष्णचन्द्र अवतारी बड़े प्रशंसनीय हैं।"