पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७९२

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७७३ AMMERPP- Pr+++ art-Part-04-Meerannamreparamentar-Prammer- R भक्तिसुधास्वाद तिलक । (श्लोक) "एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान स्वयम्" सो "इनको छोड़ आप अंशावतार श्रीरामजी को क्यों भजते हैं ?” सुनते ही श्रीगोस्वामीजी श्रीरामरूपमाधुर्थानुरागबुद्धियुक्त बोले "मैं तो श्रीचक्रवर्ती महाराजा- धिराज श्रीदशरथजी के सुत जान परम सुन्दर प्रति अनूप मान सानुराग भजता था, आज आपने अंश ईश्वरता भी बता दी, इससे मेरी रति प्रीति श्रीराम श्यामसुन्दरजी में बीस गुनी जग उठी" ॥ दो. "जो जगदीश तो अति भलो, जौ भूपति तो भाग। तुलसी चाहत जन्म भरि, रामचरण अनुराग ॥१॥ चौ० "यह सुनि जानि अनन्य उपासी । गहे चरण सबसंत हुलासी॥" देखिये, श्रीगोस्वामीजी यद्यपि श्रीरामपरत्व सर्वावतारित्व प्रमाण देकर उनको निरुत्तर कर सकते थे तथापि माधुर्यपरत्व ही से जीति लिये, क्योंकि श्रापका सिद्धांत ऐसा ही है। दो० "जो मधु दीन्हें ते मरै, माहुर दियो न जाय । जग जित हारे परशुधर, हारि जिते रघुराय ॥" दो० "फीके विना अनन्यता, यद्यपि बड़े महान । सुन्दरता बरवादि सब, बिना नाक अरु कान ॥" गोस्वामी श्री १०८ तुलसीदासजी महाराज तथा "श्रीरामचरित- मानस" की प्रशंसा में, काशी वासी साहित्याचार्य श्रीअम्बिकादत्त व्यासजी ने जो कवित्त लिखे हैं, सो कविता भी देखने ही योग्य है ।। (पटना खड्गविलास-प्रेस में मिलते हैं) श्रीजानकीघाट स्वामी श्री १०८ पं. रामवल्लभाशरण महाराजजी की आज्ञानुसार एक , वकील ने लखनऊ नवलकिशोर-प्रेस मे १९२५-१९५२ मे जो रामचरितमानस छपाई है, उसमे श्रीगोस्वामीजी की जीवनी देखिये ।