पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७९९

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७८० me Head- श्रीभक्तमाल सटीक । तीन रात्रि श्राज्ञा दी। तब उसने विचार किया कि “अब मेरा वस नहीं है विना श्रीगोसाइजी के समीप गये काम नहीं चलेगा।" जाकर द्वारपालों से विनय किया कि "मुझे कुछ कहना है सो आप गोसाई जी के कान में सुना दीजिये। सुनकर द्वारपाल खीझ उठे कि तू "उनसे बात करेगा?" परन्तु किसी ने सुना दिया, तब आपने बुलाकर पूछा कि “कहो," उसने कहा कि आपके समीप से और लोग उठ जावे तब कहूँगा, सब उठ गये, तब कान्हा स्वप्न में जो नाथजी की पात्रा हुई थी सो सब कह गया । श्रीगोकुलनाथजी सुनके अति हर्षित हुए कि "प्रभु ने मुझे अपना जान पासा दी, बड़ी मंगल की बात है, और कान्हा से मिल- के कहा कि "जो श्यामसुन्दरजी ने मेरा नाम लेकर कहा है तो अवश्य करूँगा।" फिर वह भीत गिरवा दी। और प्रेमी कान्हा को कुछ कार्य किये बिना ही भोजन वनादि सत्कार करने लगे। (१६६) श्रीबनवारीदासजी। ( ६५४ ) छप्पय । ( १८९) रसिक रँगीलौ, भजन पुंज सुठि, “बनवारी"*श्याम कौ॥बातकबित बड़ चतुर चोख चौकस अति जाने।सारा- सारबिबेक परमहंसनिपरवान॥सदाचार संतोष भूत सबको हितकारी।आरज गुन तन अमित,भक्ति दसधाव्रतधारी॥ दरसन पुनीत, आसय उदार, आलापरुचिर सुखधामको। रसिक रँगीलो, भजन पुंज मुठि, “वनवारी” श्याम कौ॥ १३३॥ (८१) -


--- - बनवारी वनमाली।