पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८०४

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trending भक्तिसुधास्वाद तिवक। नीरोग कर देते हैं; इसी प्रकार श्रीपरशुरामजी ने गोविन्दभक्ति रसायन, माला तिलक अनुपान के साथ देकर, पाप रोग को नाश कर दिया। श्री “श्रीभट्ट" जी के श्रीहरिव्यासदेव शिष्य थे, जिनसे हरि- वंशी (राधावल्लभी) हरिदासी, आदि, पाँच शाखाएँ निम्बार्क सम्प्रदाय की चली हैं। (छप्पय) "तिलक है सत अस्नान तिलक ब्राह्मन सिर सोहै। तिलक बिना कछु करो सबै फल निरफल जोहै ॥ तिलक तिया सिंगार तिलक नृप सीस लगा । तिलक वेद परमान तिलक त्रैलोक चढ़ावै ॥ तिलक तत्त्व जुग जुग सदा तिलक मिले सिधि पाइए । परसराम ब्रह्मांड मै सुजस तिलक को गाइप" ॥१॥ दो० “कथासुनै नहिं कीरतन, बकै श्रापनी बाइ। पापी मानुष परशुराम, के ऊँधे, उठि जाइ॥१॥ श्रोता ऐसो चाहिये, जाके तन मन राम । वक्ताडू हरि को भगत, जाके लोभ न काम ॥ २ ॥ साधु तहाँ ही संचरै, जहाँ धर्म की सार। सरवर सूखे परशुराम, हंस न बैठे तीर ॥ ३ ॥ (६५९) टीका । कवित्त । (१८४) राजसी महंत देखि, गयो कोऊ अंत लैन बोल्यो "जू अनंत हरि सगे, माया टारिय" । चले संग वाके, त्यागि, पहिरि कुपीन अंग, बैठे गिरि कंदरा में लागी ठौर प्यारियै ॥ तहाँ वनिजारो आय संपति चढ़ाय दई, और पालकी हूँ, महिमा निहारिय । जाय लपटायौ पाय, "भाव में न जान्यों कछु, आन्यौं उर माँझ, आवै प्रान वार डारिय" ॥ ५२२ ॥ (१०७) वात्तिक तिलक। __ श्रीपरशुरामदेवजी को राजसी महंत देखे, और उनके ये दोहे सुन, कोई परीक्षा लेने को गया। दो. “माया सगी न तन सगो, सगो न यह संसार। परशुराम, या जीव को, सगा सोसिरजनहार ॥१॥