पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८०५

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७८६ returnamu r श्रीभक्तमाल सटीक। कहते हैं करते नहीं, मुंहके बड़े लवार। कारो मुँहड़ो होइगो, साई के दरवार ॥२॥" उसने ये दोहे पढ़कर कहा कि "आपने तो लिखा है कि इस जीव के केवल श्रीहरि सगे हैं माया नहीं सगी इससे माया को छोड़ दीजिये। थापने कहा “बहुत अच्छा" और केवल एक कोपीन पहनके उसके साथ चले । पाके पर्वत के कन्दरा में बैठे । वह ठौर आपको बहुत अच्छा लगा। प्रभु को स्मरण करने लगे। इतने ही में एक बनिजारा (वेपारी) श्राकर बहुतसी सम्पत्ति और एक पालकी चरणों में चढ़ाके शिष्य हुआ। वह परीक्षा करनेवाला साथ था, भापकी महिमा देख, दौड़ चरणों में लपट कहने लगा कि मैं भापका प्रभाव कुछ नहीं जानता था, मन में और ही विचार किया, अब मेरे मन में ऐसा आता है कि आपके ऊपर प्राण नेवछावर कर दूं।" (१७१) श्रीगदाधरभटजी। ( ६६० ) छप्पय । ( १८३) गुननिकर गदाधरभट्ट"अति,सबहिन को लागै सुखद॥ सज्जन,सुहृद,सुशील,बचन आरजप्रतिपालय। निर्मत्सर, निहकाम कृपा करुणाको आलय ॥अनन्य भजन दृढ़ करनि धस्यौ बपु भक्तनि काजै । परम धरम को सेतु, बिदित छंदावन गाजै ॥ भागोत सुधा बरषै बदन, काहूकों नाहिन दुखद । गुननिकर “गदाधरभट" अति, सबहिन को लागै सुखद ॥ १३८॥ (७६) वात्तिक तिलक । शुभ साधुगणों के पुंज श्री “गदाधरभट्ट" जी सबको सुखदाता । लगते थे। सज्जन, सुहृद, सुशील, श्रेष्ठों के वचनप्रतिपालक, निमत्सर, ।


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